भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
भारत के सामाजिक ढांचे में एक ऐसा वर्ग है जो हर घर में मौजूद है, लेकिन सार्वजनिक विमर्श से लगभग अदृश्य—घरेलू कर्मकार। ये वे लोग हैं जिनके श्रम पर अनगिनत परिवारों का रोजमर्रा का जीवन निर्भर करता है। सफाई, खाना बनाना, बच्चों या बुजुर्गों की देखभाल, कपड़े धोना—इन सब कार्यों से समाज की एक बड़ी मशीनरी चलती है। फिर भी, इन कर्मकारों का योगदान अक्सर “अनौपचारिक” और “अदृश्य” श्रेणी में डाल दिया जाता है। यही कारण है कि उन्हें न तो पर्याप्त विधिक सुरक्षा प्राप्त है, न ही सामाजिक मान्यता या सम्मान। जॉन रॉल्स ने अपनी प्रसिद्ध “थ्योरी ऑफ जस्टिस” में कहा था कि समाज की आर्थिक-सामाजिक संरचनाएं इस प्रकार होनी चाहिएँ कि वे सबसे कमजोर वर्ग के अधिकतम हित में काम करें। इस दार्शनिक दृष्टि से देखें तो भारत की घरेलू कर्मकार नीति अब भी अधूरी है। यह वह वर्ग है जो सबसे निचले पायदान पर खड़ा है—मुख्यतः महिलाएँ, प्रवासी मजदूर और सामाजिक रूप से वंचित तबके—जिन्हें रोजगार तो मिलता है, लेकिन उसके साथ न तो स्थायित्व है, न सुरक्षा, न गरिमा। 2024 के श्रम मंत्रालय के अनुमानों के अनुसार, देश में करीब 45 से 50 लाख घरेलू कर्मकार कार्यरत हैं। इनमें से 75% से अधिक महिलाएँ हैं। हालांकि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक मानी जाती है, क्योंकि अधिकांश घरेलू कार्य अनौपचारिक और अप्रतिबंधित होते हैं। इन कर्मकारों को न्यूनतम वेतन, छुट्टी, मातृत्व लाभ या सामाजिक सुरक्षा जैसी सुविधाएँ नहीं मिलतीं। बहुतों के साथ मौखिक समझौते के आधार पर काम होता है—कोई लिखित अनुबंध नहीं, कोई कानूनी सुरक्षा नहीं। महामारी के दौरान जब लॉकडाउन लगा, तब यह वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हुआ। न तो उन्हें घरों में प्रवेश मिला, न ही किसी तरह की आर्थिक सहायता। लाखों महिलाओं को अपने गांव लौटना पड़ा। उस समय यह साफ हुआ कि “होम बेस्ड” कामगारों की सुरक्षा के लिए कोई ठोस ढांचा मौजूद नहीं है। भारत में घरेलू कर्मकारों के लिए कोई राष्ट्रीय स्तर का समग्र कानून नहीं है। कुछ राज्य—जैसे तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, झारखंड और राजस्थान—ने अपने-अपने स्तर पर नियम बनाए हैं, लेकिन उनकी प्रभावशीलता सीमित है। 2008 में डोमेस्टिक वर्कर्स (रेग्युलेशन ऑफ वर्क एंड सोशल सिक्योरिटी) बिल का मसौदा तैयार हुआ था, पर वह कभी संसद में पारित नहीं हो सका। वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आई एल ओ कन्वेंशन 189 ने स्पष्ट रूप से कहा है कि घरेलू कर्मकारों को भी वही अधिकार मिलने चाहिए जो अन्य श्रमिकों को प्राप्त हैं—न्यूनतम वेतन, कार्य समय की सीमा, साप्ताहिक अवकाश, और सामाजिक सुरक्षा। भारत ने अब तक इस कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किया है, जो अपने आप में एक बड़ी विफलता है। कानूनी ढांचा जितना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक जरूरी है सामाजिक मानसिकता में परिवर्तन। भारत में घरेलू कार्य को अक्सर “सेवा” या “सहायता” समझा जाता है, श्रम नहीं। इसलिए लोग इसे ‘काम’ नहीं बल्कि ‘मदद’ मानते हैं। यही सोच इन कर्मकारों को बराबरी का दर्जा देने में सबसे बड़ी बाधा बनती है। महिलाओं के सशक्तीकरण के संदर्भ में भी यह एक गंभीर विषय है, क्योंकि लगभग सभी घरेलू कर्मकार महिलाएँ हैं। वे दोहरे बोझ तले दबी हैं—घर में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना और दूसरे घरों में श्रमिक के रूप में काम करना। फिर भी उन्हें “कामकाजी महिला” के रूप में सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती। भारत में घरेलू कर्मकारों के संगठन सक्रिय हैं, परंतु इनकी पहुंच सीमित है। इन संगठनों ने न्यूनतम वेतन, अवकाश, और अनुबंध आधारित सुरक्षा की मांगें उठाई हैं। मगर तब तक ठोस सुधार संभव नहीं जब तक सरकार इन मुद्दों को नीति-स्तर पर नहीं अपनाती। सामूहिक संगठन इन कर्मकारों को आत्मसम्मान और एकजुटता का अहसास देते हैं। प्रशिक्षण, कानूनी सहायता, और डिजिटल साक्षरता के माध्यम से उन्हें सशक्त किया जा सकता है। जागरूकता अभियान न केवल नियोक्ताओं के बीच, बल्कि कर्मकारों के बीच भी चलाने होंगे ताकि वे अपने अधिकारों को जानें और मांग सकें। हाल के वर्षों में सरकार ने ई-श्रम पोर्टल और पी एम श्रम योगी मानधन योजना जैसी पहलें शुरू की हैं, जिनका उद्देश्य असंगठित श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देना है। लेकिन घरेलू कर्मकारों का इसमें पंजीकरण अब भी बहुत कम है। इसका मुख्य कारण है—डेटा की अनुपलब्धता, पहचान की समस्या, और कार्यस्थल की निजी प्रकृति। एक व्यापक घरेलू कर्मकार संरक्षण अधिनियम समय की मांग है, जिसमें इन बिंदुओं को शामिल किया जाए—न्यूनतम वेतन और कार्य समय का निर्धारण।लिखित अनुबंध और कार्य शर्तों का मानकीकरण।स्वास्थ्य, मातृत्व और बीमा जैसी सामाजिक सुरक्षा।शिकायत निवारण तंत्र और निरीक्षण व्यवस्था।भर्ती एजेंसियों का विनियमन, ताकि शोषण रोका जा सके। घरेलू कर्मकारों को केवल “कल्याण योजनाओं” के दायरे में नहीं बल्कि गरिमा और अधिकारों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। यह न केवल नैतिक बल्कि संवैधानिक दायित्व भी है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 23 (बलपूर्वक श्रम पर प्रतिबंध) इस दिशा में आधार प्रदान करते हैं। जब हम “आत्मनिर्भर भारत” या “सबका साथ, सबका विकास” की बात करते हैं, तो इस वर्ग को उसमें शामिल किए बिना वह नारा अधूरा रहेगा। घरेलू कर्मकार केवल घरों को नहीं, पूरे समाज को चलाने वाली मौन शक्ति हैं। उनका कार्य निजी दायरे में होता है, लेकिन उसका प्रभाव सार्वजनिक जीवन तक फैला हुआ है। उन्हें विधिक मान्यता, सामाजिक सुरक्षा और सम्मान मिलना सिर्फ सामाजिक न्याय का प्रश्न नहीं, बल्कि आर्थिक प्रगति की शर्त भी है। भारत को अब यह स्वीकार करना होगा कि “घर के भीतर का काम” भी काम है—जिसे नीतिगत संरक्षण, उचित वेतन और सम्मान का अधिकार है। जब घरेलू कर्मकार सुरक्षित, संगठित और सशक्त होंगे, तभी वास्तविक समावेशी विकास का सपना पूरा होगा।