भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी दिल्ली एक बार फिर धुएं और धुंध की मोटी परत में घिर चुकी है। दीपावली की रात जब पूरा देश प्रकाश का पर्व मना रहा था, तब दिल्ली के कई हिस्सों में एयर क्वालिटी इंडेक्स के मीटरों ने ही जवाब दे दिया था। यानी प्रदूषण का स्तर मापने वाले यंत्र भी हार मान गए। यह कोई सामान्य स्थिति नहीं थी — यह उस शहर का चित्र था जहां देश के राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री कार्यालय, सुप्रीम कोर्ट, संसद भवन और सेनाओं के मुख्यालय आदि स्थित हैं। यही वह दिल्ली है, जो लोकतंत्र की शक्ति का प्रतीक है, लेकिन सांस लेने के अधिकार पर विफल प्रयोगशाला बन चुकी है। दीपावली का उद्देश्य अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है, लेकिन बीते कुछ वर्षों से यह त्यौहार राजधानी के लिए वायु प्रदूषण के चरम का पर्याय बन गया है। पटाखों, वाहनों, औद्योगिक उत्सर्जन और पराली जलाने का मिला-जुला असर इतना घातक साबित हुआ कि दीपावली की रात दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स कई जगहों पर 900 से ऊपर जा पहुंचा — जो ‘गंभीर’ श्रेणी से भी आगे की स्थिति है। यह वही श्रेणी है जिसमें सांस लेना स्वास्थ्य के लिए घातक माना जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट बताती है कि इस साल दिवाली के दौरान दिल्ली के आनंद विहार, वज़ीरपुर, रोहिणी और मुंडका जैसे इलाकों में पी एम 2.5 और पी एम 10 का स्तर सामान्य सीमा से 15 से 18 गुना अधिक दर्ज हुआ। वहीं, कई स्थानों पर एयर क्वालिटी इंडेक्स मापक यंत्रों ने डेटा रिकॉर्ड करना ही बंद कर दिया — यानी प्रदूषण इतना अधिक था कि मशीनों की क्षमता से बाहर चला गया। यह दृश्य भयावह इसलिए है क्योंकि दिल्ली देश का राजनीतिक, प्रशासनिक और न्यायिक केंद्र है। यहां सभी निर्णयकर्ता रहते हैं — प्रधानमंत्री से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक। ऐसे में जब राष्ट्रीय नीतियों की धुरी वाली राजधानी में ही लोग सांस नहीं ले पा रहे, तो सवाल उठता है कि पर्यावरण नीति का धरातल पर क्रियान्वयन आखिर कहां है? सरकारों ने अदालतों में हलफनामे देकर प्रदूषण नियंत्रण के तमाम दावे किए हैं। ‘ग्रेडेड रेस्पॉन्स एक्शन प्लान’ लागू किया गया, स्कूल बंद करने से लेकर निर्माण कार्यों पर रोक तक की घोषणाएं की गईं। मगर हकीकत यह है कि ये कदम घटनाओं के बाद उठाए जाने वाले औपचारिक उपाय बनकर रह गए हैं। प्रदूषण पर स्थायी समाधान की दिशा में कोई ठोस परिणाम नहीं दिखता। हर साल प्रदूषण के मौसम में एक परिचित बहस दोहराई जाती है — पराली जलाने के लिए हरियाणा और पंजाब के किसानों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। परंतु सवाल यह भी है कि क्या दिल्ली में जलते करोड़ों पटाखे, बढ़ता ट्रैफिक, और अवैज्ञानिक शहरी नियोजन किसी ‘दूसरे’ की गलती है? किसानों पर दोष मढ़ देना आसान है, क्योंकि वे सुदूर खेतों में हैं, लेकिन जिम्मेदारी दिल्ली के भीतर भी उतनी ही गहरी है। इस शहर की 3 करोड़ आबादी रोज़ाना लगभग 10,000 टन कचरा पैदा करती है, जिसमें से आधे से ज्यादा खुले में जलाया जाता है। पराली पर तो बैन है, लेकिन कचरा जलाने वालों पर कार्रवाई कितनी होती है, यह प्रशासनिक रिकॉर्ड में ही दबा रह जाता है। दिल्ली में हर सर्दी यह कहानी दोहराई जाती है — जब हवा में धुआं घुलता है, तो सरकारें और एजेंसियां ‘तत्काल बैठकें’ बुलाती हैं। एयर प्यूरीफायर, मास्क और एंटी-स्मॉग टावरों की बातें शुरू हो जाती हैं। मगर सवाल यह है कि यह तैयारी पहले क्यों नहीं होती? क्या सरकारों का काम केवल संकट के बाद फायर-फाइटिंग करना है, या संकट से पहले उसे रोकने का भी कोई दायित्व है? पर्यावरण न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक बार-बार यह निर्देश दे चुके हैं कि दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण को रोकने के लिए दीर्घकालिक नीति बने। परंतु इन आदेशों का पालन केवल कागजों तक सीमित है। ऐसा लगता है जैसे हम धुएं के बीच ‘साफ हवा’ की नीति खोजने का नाटक कर रहे हैं। सच यह भी है कि सरकारों के साथ-साथ समाज की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। दीपावली का अर्थ केवल पटाखे नहीं हैं। पारंपरिक रूप से यह दीपों, स्वच्छता और खुशहाली का त्योहार है। अगर हम अपने उत्सवों को पर्यावरण के अनुकूल बनाएँ, तो न केवल हवा साफ रह सकती है बल्कि त्योहार की आत्मा भी बच सकती है। दिल्ली के कई मोहल्लों में इस बार लोगों ने ग्रीन पटाखे, मिट्टी के दीये और स्वदेशी सजावट को अपनाने का प्रयास किया, लेकिन यह प्रयास अभी भी सीमित है। इसे आंदोलन का रूप देने की जरूरत है। भारत की राजधानी अगर खुद को बचा नहीं पा रही, तो यह केवल पर्यावरणीय संकट नहीं बल्कि लोकतांत्रिक जिम्मेदारी का संकट भी है। जब वही शहर, जहां से पूरे देश के कानून बनते हैं, अपने नागरिकों को शुद्ध हवा देने में असमर्थ है, तो यह हमारी विकास अवधारणा पर गहरा प्रश्नचिह्न है। दिल्ली का प्रदूषण अब केवल एक मौसम या त्यौहार का मुद्दा नहीं रहा — यह स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और प्रशासनिक संवेदनशीलता से जुड़ा राष्ट्रीय आपातकालीन विषय बन चुका है। अंततः यह कहा जा सकता है कि दिवाली का असली अर्थ है — अंधकार का अंत और नई रोशनी की शुरुआत। यह केवल घरों को जगमगाने का पर्व नहीं, बल्कि आत्मा को शुद्ध करने का अवसर भी है। अगर हम अपनी ही सांसों को दूषित कर इस पर्व को मनाएंगे, तो यह ‘प्रकाश’ नहीं, स्वार्थ के धुएं का उत्सव बन जाएगा। अब वक्त है कि सरकारें औपचारिक आदेशों से आगे बढ़ें और समाज इस समस्या को ‘हर व्यक्ति की जिम्मेदारी’ माने। तभी दिल्ली का आसमान फिर से नीला होगा और दीपावली सचमुच ‘अंधकार पर प्रकाश की विजय’ कहलाएगी।