भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
देवउठनी एकादशी का पर्व, जब पूरा देश भगवान विष्णु के जागरण का उत्सव मना रहा था, उसी दिन आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर में मौत ने भयावह रूप ले लिया। श्रद्धालुओं की भारी भीड़ में मची भगदड़ ने 10 लोगों की जान ले ली और कई घायल हुए। भक्ति और आस्था का माहौल कुछ ही मिनटों में त्रासदी में बदल गया। सवाल यह नहीं कि यह कैसे हुआ — बल्कि यह है कि यह बार-बार क्यों होता है और हमारी सरकारें, प्रशासन और समाज हर बार इतने निर्दयी और लापरवाह क्यों बन जाते हैं? भारत में धार्मिक आस्था के नाम पर भीड़ जुटना कोई नई बात नहीं। हर पर्व, हर उत्सव में लाखों लोग दर्शन के लिए उमड़ते हैं। लेकिन यह भीड़ अक्सर मौत में बदल जाती है। वेंकटेश्वर मंदिर हादसा भी उसी कड़ी की एक और कड़ी है, जहाँ श्रद्धा के नाम पर सुरक्षा प्रबंधन की पोल खुल गई। भक्तों के अनुसार, देवउठनी एकादशी के दिन मंदिर में हजारों श्रद्धालु पहुंचे थे। लेकिन सीमित स्थान, संकरे रास्ते और अव्यवस्थित कतार प्रणाली ने स्थिति को अनियंत्रित बना दिया। एक छोटी सी अफवाह और भीड़ का बहाव — यही पर्याप्त था कि लोग एक-दूसरे पर गिरते चले गए। कई महिलाओं और बुजुर्गों की मौके पर ही मौत हो गई।यह सब उस राज्य में हुआ जहाँ हर बड़े धार्मिक स्थल पर “सुरक्षा इंतज़ाम” के दावे किए जाते हैं। लेकिन हकीकत यही है कि भारत में आस्था की भीड़ को संभालने का कोई ठोस ढांचा आज तक नहीं बना।यह घटना कोई अपवाद नहीं। सूत्रों के मुताबिक धार्मिक स्थलों पर भीड़-प्रबंधन की विफलता ने पहले भी सैकड़ों जिंदगियाँ लील ली हैं:मांढरदेवी मंदिर, महाराष्ट्र (2005) – जत्रा के दौरान 300 से अधिक लोगों की मौत, कारण – भीड़ और अव्यवस्था।नैना देवी मंदिर, हिमाचल प्रदेश (2008) – अफवाह फैलते ही भगदड़, 146 लोग मारे गए।चामुंडा देवी मंदिर, जोधपुर (2008) – 224 मौतें और 425 घायल, कोई आपात योजना नहीं।वैष्णो देवी मंदिर, जम्मू (2022) – नववर्ष की रात भगदड़, 12 श्रद्धालु काल के गाल में समा गए।हरिद्वार कुंभ मेला (2010) – पवित्र स्नान के दौरान भीड़ नियंत्रण फेल, कई लोगों की जान गई।हर हादसे के बाद वही बयान — “जांच के आदेश दिए गए हैं”, “दोषियों पर कार्रवाई होगी”, “मुआवजा दिया जाएगा”। लेकिन अगली बार फिर वही चूक, वही मौतें और वही चुप्पी। क्या यही संवेदनशील प्रशासन कहलाता है?देश के मंदिरों और धार्मिक स्थलों की आर्थिक स्थिति किसी कॉर्पोरेट संस्था से कम नहीं। करोड़ों रुपये का चढ़ावा, भेंट और दान हर साल आते हैं, लेकिन सवाल है — इन पैसों का कितना हिस्सा सुरक्षा व्यवस्था पर खर्च होता है?वेंकटेश्वर मंदिर हादसे में, रिपोर्ट बताती है कि कोई आपात निकास मार्ग नहीं था, न तो पर्याप्त पुलिस बल, और न मेडिकल सुविधा। इतने बड़े आयोजन में प्रशासन ने केवल “अनुमानित भीड़” के हिसाब से तैयारी की। इस देश में “आस्था” की जगह “अंधविश्वास” ने ले ली है — जहाँ लोग यह मान लेते हैं कि “भगवान संभाल लेंगे।” लेकिन भगवान तो नहीं, यह लापरवाही ही हर बार लोगों को कुचलती है।धार्मिक आयोजन अब केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं रहे। वे राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन का मंच बन गए हैं। मुख्यमंत्री से लेकर सांसद तक, हर कोई इन आयोजनों में “श्रद्धा” दिखाने आता है, पर कोई सुरक्षा की समीक्षा नहीं करता।राजनीतिक दल जानते हैं कि आस्था पर सवाल उठाना वोट बैंक को नाराज़ कर सकता है, इसलिए वे इन हादसों को “दुर्भाग्य” कहकर टाल देते हैं। लेकिन यह “दुर्भाग्य” नहीं, बल्कि संस्थागत अपराध है — जहाँ प्रशासनिक तैयारी की कमी से निर्दोष भक्तों की जान चली जाती है।हादसों पर समाज की प्रतिक्रिया भी उतनी ही डराने वाली है। आज की जनता सोशल मीडिया पर दो मिनट शोक जताती है, #प्रे फॉर विक्टिमज़” लिख देती है, और फिर अगली खबर पर बढ़ जाती है। न कोई जनदबाव बनता है, न कोई सुधार की मांग।सरकारें जानती हैं कि जनता भूल जाएगी। इसलिए इन मौतों का कोई राजनीतिक या नैतिक परिणाम नहीं होता। शायद इसी कारण हर साल वही हादसे होते हैं, और हर साल वही प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी होती हैं।भारत जैसे देश में, जहाँ हर साल सैकड़ों धार्मिक आयोजन होते हैं, वहाँ आज तक कोई राष्ट्रीय भीड़ सुरक्षा नीति नहीं है। न ही धार्मिक स्थलों के लिए अनिवार्य सुरक्षा ऑडिट या भीड़ नियंत्रण प्रोटोकॉल लागू है।क्या यह जिम्मेदारी सिर्फ मंदिर प्रशासन की है? नहीं। यह राज्य और केंद्र सरकार दोनों का दायित्व है कि हर बड़े धार्मिक स्थल पर —आपातकालीन निकासी मार्ग,फुलप्रूफ बैरिकेडिंग,सी सी टी वी निगरानी,मेडिकल टीमेंऔर सुरक्षा प्रशिक्षण प्राप्त कर्मी हर वक्त मौजूद हों।यह सब तब तक संभव नहीं, जब तक सुरक्षा को “धार्मिक आयोजन का हिस्सा” न माना जाए। सुरक्षा को भक्ति के विपरीत नहीं, उसका अंग समझना होगा।वेंकटेश्वर मंदिर हादसे ने एक बार फिर साबित कर दिया कि भारत में आस्था की नहीं, प्रशासनिक संवेदनशीलता की कमी है।हर मौत के बाद श्रद्धांजलि देना आसान है, लेकिन हर जान की कीमत समझना कठिन।मंदिरों में भीड़-नियंत्रण और सुरक्षा व्यवस्था को लेकर ठोस कदम उठाने होंगे — नहीं तो यह हादसे “भाग्य” नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक विफलता कहलाएंगे।सरकारें यदि धार्मिक आयोजनों को “सांस्कृतिक संपदा” कहती हैं, तो उन्हें “सुरक्षा प्रोटोकॉल” का पालन भी अनिवार्य करना चाहिए। वरना, हर अगली देवउठनी एकादशी या कुंभ स्नान, किसी और परिवार के लिए मातम का दिन बन सकता है।भारत जैसे धार्मिक राष्ट्र में मंदिरों में जान गंवाना सामान्य बात बन चुकी है — यह शर्मनाक है।वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर की यह त्रासदी कोई आखिरी घटना नहीं होगी, अगर हमने अब भी नहीं सीखा।प्रशासन को यह मानना होगा कि भीड़ की सुरक्षा भगवान नहीं संभालता, बल्कि इंसान को खुद संभालनी होती है।अगर सरकारें जागीं नहीं, अगर समाज आवाज़ नहीं उठाएगा, तो आने वाले समय में “श्रद्धा” शब्द का अर्थ सिर्फ “मौत का खतरा” बन जाएगा।