भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
भारत आज जिस सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन पर खड़ा है, वहां निराशा है, बेरोज़गारी और सुरक्षा के बढ़ते मोर्चे ने सामाजिक न्याय के प्रश्न को केंद्र में ला दिया है। इस सिद्धांत में यूनिवर्सल रिसर्च आय (यूनिवर्सल बेसिक इनकम-यूबीआई) एक ऐसा विचार है जो देश के सामाजिक अनुबंध को पुनर्निर्मित करने की क्षमता रखता है। इसका मूल उद्देश्य प्रत्येक नागरिक को आर्थिक गरिमा, सामाजिक सुरक्षा और अवसरों की गारंटी देना है। लेकिन इस विचार की व्यवहारिकता, इसकी राजकोषीय स्थिरता, संस्थागत और डिजिटल योजना पर निर्भरता है। यदि इसे चरणबद्ध किया जाए, न्यायसंगत और विवेकपूर्ण तरीके से लागू किया जाए, तो न केवल गरीबी असमानता बल्कि सामाजिक पुनरुत्थान का एक शक्तिशाली उपकरण सिद्ध हो सकता है। यूबीआई की अवधारणा का मूल यह है कि हर नागरिक को, उसकी आर्थिक स्थिति या रोजगार की स्थिति से परे, एक निश्चित आय की स्थापना मिले। इससे यह निश्चित होता है कि कोई भी व्यक्ति न्यूनतम जीवन-स्तर से नीचे नहीं गिरता। भारत जैसे विविधता-पूर्ण समाज में, जहां करोड़ों लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और सामाजिक सुरक्षा बीमा की पहुंच सीमित है, यूबीआई एक प्रतिष्ठित सुरक्षा कवच का काम कर सकता है। विशेष रूप से ऐसे समय में जब ऑटोमेशन, कृत्रिम सांस्कृतिक और वैश्विक आर्थिक अर्थव्यवस्था पारंपरिक रोजगार को बदला जा रहा है, वहां यह नीति सामाजिक स्थिरता का आधार बन सकती है। हालाँकि, इसकी सफलता केवल नीति की घोषणा नहीं की गई है, बल्कि इसकी राजकोषीय अनुशासितता पर प्रतिबंध है। भारत जैसे उन्नत देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इतनी बड़ी योजना के लिए स्रोत कहां से आएंगे। यदि सरकार अंतिम सीमा, कर-छूट और लाभ पात्रता का विवेकपूर्ण पुनर्स्थापन करे, तो एक बड़ी राशि यूबीआई के लिए उपलब्ध हो सकती है। लेकिन यह तब तक संभव है जब तक यह सुनिश्चित न हो जाए कि गरीबों को मिलने वाली स्थायी कीमतें समाप्त नहीं होंगी। यूबीआई को एस्टीमेट प्रोग्राम का प्रतिस्थापन नहीं, बल्कि फुलाए जाने योग्य के रूप में देखा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, खाद्य सुरक्षा या स्वास्थ्य योजनाएँ सामाजिक सुरक्षा के स्तंभ हैं, जहाँ समानांतर ही यूबीआई को चलना होगा। डिजिटल भारत और आधार-आधारित पहचान प्रणाली ने यूबीआई के आवेदन को तकनीकी रूप से संभव बनाया है। आज डीबीटी (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर) प्रणाली के माध्यम से सरकारी मंजूरी का लाभ सीधे सब्सिडी के विक्रय में पहुंच रहा है, जिससे सुविधा और लाभ में वृद्धि हुई है। इसी तरह के डिप्लोमा के माध्यम से यूबीआई का संचालन आंशिक रूप से आसान हो सकता है। फिर भी, ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में डिजिटल डिजाइन और डिजिटल अवसंरचना को मजबूत करना अनिवार्य है ताकि कोई भी नागरिक इसे शेयर न कर सके। यूबीआई केवल आर्थिक नीति नहीं, बल्कि सामाजिक दर्शन है। यह नागरिक को केवल आर्थिक सहायता नहीं देता, बल्कि उसे अपना निर्णय मुक्ति की छूट भी प्रदान करता है। गरीबी के पारंपरिक मॉडल शब्दावली 'समर्थक प्राप्तकर्ता' और 'सहायक' के बीच संबंध टूटते हैं, जिससे भावना की भावना का जन्म होता है। जबकि यूबीआई प्रत्येक नागरिक के अधिकार और अन्यायपूर्ण व्यवहार को बढ़ावा देता है। यह सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति के पास जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी करने का साधन हो और वह ऊर्जा शिक्षा, स्वास्थ्य और अपनी उद्यमिता जैसे क्षेत्र में निवेश कर सके। इसके आलोचक यह तर्क देते हैं कि बिना किसी कार्य के आय में कार्य-प्रेरणा की कमी हो सकती है या स्तर पर असर हो सकता है। लेकिन कई देशों में किए गए प्रयोगों से यह स्पष्ट हुआ कि यूबीआई वाले लोगों ने अपना पैसा नहीं खोया, बल्कि बेहतर अवसरों की तलाश में अधिक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बने। भारत में भी सीमित डोमेन में पायलट प्रोजेक्ट्स जैसे मध्य प्रदेश के सीवा प्रोजेक्ट में दिखाया गया है कि दर्शन आय से स्वास्थ्य, शिक्षा और महिला गतिशीलता में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। इससे न केवल उपभोक्ता में वृद्धि हुई, बल्कि स्थानीय उद्योग को भी गति मिली। यूबीआई का एक और महत्वपूर्ण गरिमा का अधिकार है। गरीबी केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक बहिष्कार का प्रतीक भी है। जब किसी व्यक्ति को यह सुनिश्चित हो जाता है कि उसकी न्यूनतम आवश्यकताएं सुरक्षित हैं, तो उसका आधार बढ़ता है और वह समाज में सक्रिय भागीदारी के योग्य बनता है। यही कारण है कि कई अर्थशास्त्री इसे लोकतंत्र के लोकतंत्र और सामाजिक एकता के माध्यम में मानते हैं। फिर भी, नीति निर्माण में जल्दबाज़ी से बचना होगा। भारत के विशालीकरण और विभिन्न आर्थिक विसंगतियों के कारण, यूबीआई को चरणबद्ध रूप से लागू करना अधिक व्यवहारिक होगा। शुरुआत में इसे सीमित ग्रेड या फ़्लोरिडा फ़्रैंचाइज़ी के लिए लागू किया जा सकता है, और धीरे-धीरे इसे रेज़्यूमे प्लास्टर मोल्डिंग के लिए लागू किया जा सकता है। इसके साथ ही, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे क्षेत्रों में सार्वजनिक निवेश को भी संवैधानिक साधन के रूप में शामिल किया जाएगा, ताकि आर्थिक सहायता केवल सहायता न हो और न ही संवैधानिक आरक्षण का माध्यम बने। यूबीआई की दिशा में कदम उठाए गए भारत पर भी ध्यान दिया जाएगा कि यह केवल आय स्थानांतरण की नीति न बने। इसे सामाजिक न्याय, आर्थिक लाभ और मानवता विभाग के व्यापक जर्नल में देखा जाना चाहिए। डिजिटल आर्किटेक्चर, फाइनेंसियल आर्किटेक्चर और रियलिटी की दृष्टि से ही इसे स्थिर रखा जा सकता है। अंततः, भारत आज विकास और विविधता के दोराहे पर खड़ा है। ऐसे समय में सार्वभौम दर्शन में हमें यह याद दिलाया जाता है कि वास्तविक प्रगति केवल आर्थिक वृद्धि में नहीं है, बल्कि उस सार्वभौम गरिमा में निहित है जो हर नागरिक का अधिकार है। यदि इसे विवेक, दूरदर्शिता और समावेशिता के साथ जोड़ा जाए, तो यह भारत को न केवल आर्थिक रूप से मजबूत किया जा सकता है, बल्कि सामाजिक रूप से न्यायपूर्ण और मानवीय राष्ट्र में बदला जा सकता है।