बिहार की सियासत एक बार फिर गरमाने लगी है। कभी एक-दूसरे के सहयोगी रहे राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और कांग्रेस अब आमने-सामने नज़र आ रहे हैं। आगामी विधानसभा चुनावों से पहले जिस “फ्रेंडली फाइट” की बात दोनों दलों के नेता कर रहे थे, वह अब “खुली जंग” का रूप ले चुकी है। सीट बंटवारे को लेकर शुरू हुआ विवाद अब विश्वास संकट में बदल गया है, जिससे महागठबंधन (Grand Alliance) की एकजुटता पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं।
सूत्रों के मुताबिक, आरजेडी ने जिन सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित किए हैं, उनमें से कई कांग्रेस के पारंपरिक गढ़ माने जाते हैं। कांग्रेस ने इसे एकतरफा फैसला बताते हुए नाराज़गी जताई है। पार्टी नेताओं का कहना है कि आरजेडी अब गठबंधन की भावना से नहीं, बल्कि “वन-मैन शो” के तौर पर काम कर रही है। वहीं आरजेडी का तर्क है कि कांग्रेस राज्य में कमजोर स्थिति में है और चुनावी समीकरण को देखते हुए सीटें उसी अनुपात में दी जा सकती हैं।
पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने अपने हालिया बयान में कहा कि “हम किसी को दरकिनार नहीं कर रहे, लेकिन जीतने की क्षमता पर ही टिकट तय होगा।” कांग्रेस ने इसे अप्रत्यक्ष चुनौती माना है। पार्टी के वरिष्ठ नेता अजीत शर्मा और मदन मोहन झा ने कहा कि “अगर सम्मानजनक सीटें नहीं दी गईं तो कांग्रेस अपने दम पर मैदान में उतरेगी।”
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद केवल सीटों का नहीं बल्कि नेतृत्व और भरोसे की लड़ाई भी है। महागठबंधन के छोटे घटक दल—सीपीआई(एमएल), वीआईपी और हम पार्टी—भी असमंजस की स्थिति में हैं। वहीं भाजपा और जदयू इस पूरे घटनाक्रम को “गठबंधन की कमजोरी” बताकर अपने प्रचार में भुना रही हैं।
अगर यही हालात बने रहे तो बिहार का महागठबंधन टूट की कगार पर पहुंच सकता है। जानकारों का कहना है कि 2020 की तरह एकजुट होकर मुकाबला करने की स्थिति अब नहीं रही। आरजेडी को जहां यादव–मुस्लिम वोट बैंक पर भरोसा है, वहीं कांग्रेस अब शहरी और युवा मतदाताओं पर दांव लगा रही है।
राजनीतिक समीकरणों के इस नए दौर में सबसे बड़ा सवाल यही है — क्या “महागठबंधन” अब भी महा रहेगा या टूटकर इतिहास बन जाएगा?