पिछले 13 वर्षों में करीब 20 लाख भारतीयों द्वारा अपनी नागरिकता छोड़े जाने का आंकड़ा एक गंभीर सामाजिक, आर्थिक और नीतिगत बहस को जन्म देता है। यह प्रवृत्ति केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे देश की बदलती परिस्थितियां, वैश्विक अवसर और व्यक्तिगत आकांक्षाएं भी जुड़ी हुई हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2011 से 2024 के बीच बड़ी संख्या में भारतीयों ने विदेशी नागरिकता अपनाने के लिए भारतीय नागरिकता त्याग दी, जो हर साल औसतन बढ़ती हुई दिखाई देती है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस रुझान के पीछे प्रमुख कारणों में बेहतर जीवन स्तर, उच्च शिक्षा, रोजगार के व्यापक अवसर और स्थायी निवास की सुविधा शामिल हैं। अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन जैसे देश भारतीयों की पहली पसंद बने हुए हैं, जहां शिक्षा और पेशेवर विकास की संभावनाएं अधिक मानी जाती हैं। खासतौर पर आईटी, हेल्थकेयर, रिसर्च और मैनेजमेंट जैसे क्षेत्रों से जुड़े पेशेवर बड़ी संख्या में विदेशों की ओर रुख कर रहे हैं।
इस प्रवृत्ति का एक अहम पहलू यह भी है कि नागरिकता छोड़ने वालों में बड़ी संख्या युवा और कामकाजी आयु वर्ग की है। इसे ‘ब्रेन ड्रेन’ के रूप में भी देखा जा रहा है, जहां प्रतिभाशाली और कुशल मानव संसाधन देश से बाहर जा रहा है। हालांकि, कुछ अर्थशास्त्री इसे पूरी तरह नकारात्मक नहीं मानते। उनका तर्क है कि प्रवासी भारतीय रेमिटेंस, निवेश और वैश्विक नेटवर्क के ज़रिये भारत की अर्थव्यवस्था को अप्रत्यक्ष रूप से मज़बूत भी करते हैं।
सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो बढ़ता पलायन यह सवाल भी खड़ा करता है कि क्या देश में युवाओं को पर्याप्त अवसर और भरोसेमंद माहौल मिल पा रहा है। रोजगार की प्रतिस्पर्धा, शिक्षा की लागत, जीवन की गुणवत्ता और प्रशासनिक प्रक्रियाओं जैसी चुनौतियां कई लोगों को विदेश में भविष्य तलाशने के लिए प्रेरित करती हैं। इसके साथ ही, कुछ मामलों में दोहरी नागरिकता की अनुमति न होना भी नागरिकता त्यागने का एक व्यावहारिक कारण बनता है।
सरकार की ओर से समय-समय पर यह स्पष्ट किया गया है कि नागरिकता छोड़ना व्यक्तिगत निर्णय है और इसे रोका नहीं जा सकता। फिर भी, नीति विशेषज्ञों का मानना है कि यदि देश में रोजगार सृजन, शोध के अवसर, स्टार्टअप इकोसिस्टम और जीवन की गुणवत्ता को और बेहतर बनाया जाए, तो इस प्रवृत्ति को संतुलित किया जा सकता है।
कुल मिलाकर, 13 वर्षों में 20 लाख भारतीयों द्वारा नागरिकता छोड़े जाने का आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं, बल्कि देश की नीतियों, अवसरों और वैश्विक प्रतिस्पर्धा का आईना है। यह समय है कि इस मुद्दे को भावनाओं से नहीं, बल्कि ठोस नीतिगत सुधारों और दीर्घकालिक दृष्टिकोण के साथ देखा जाए।