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संपादकीय

India's global role in balancing principle and pragmatism: सिद्धांत और व्यावहारिकता के संतुलन में भारत की वैश्विक भूमिका

May 28, 2025 08:54 PM

भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़    

जी हां भारत के साथ चल रहे सैन्य तनाव के बीच पाकिस्तान को आई एम एफ द्वारा प्रदान किया गया 2.4 अरब डॉलर का ऋण बहुपक्षीय संस्थानों की तटस्थता पर गंभीर सवाल खड़े करता है। यह निर्णय अंतरराष्ट्रीय संगठनों की पारदर्शिता और निष्पक्षता की सीमाओं को उजागर करता है, विशेषकर तब जब कोई देश उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में अपने रणनीतिक हितों की रक्षा करना चाहता है। भारत के लिये आवश्यक हो गया है कि वह बहुपक्षीय मंचों और लघु-गठबंधनों के बीच संतुलन साधते हुए एक सशक्त, समावेशी और उत्तरदायी वैश्विक व्यवस्था की दिशा में कार्य करे। आईये बात करते हैं बहुपक्षीय मंचों की भूमिका और वैश्विक चुनौतियों के समाधान की। जलवायु परिवर्तन, महामारी और आर्थिक संकट जैसे मुद्दों के समाधान के लिये बहुपक्षीय मंच महत्वपूर्ण हैं। पेरिस समझौता और कोवेक्स  पहल जैसे उदाहरण यह दर्शाते हैं कि कैसे विभिन्न देश मिलकर साझा लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र चार्टर और डबल्यू टी ओ जैसी संस्थाएँ अंतरराष्ट्रीय नियमों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इनके माध्यम से वैश्विक व्यापार और सुरक्षा संबंधी विवादों का शांतिपूर्ण समाधान संभव होता है। डबल्यू टी ओ की विवाद निपटान प्रणाली ने 1995 से अब तक 600 से अधिक विवाद सुलझाए हैं। बहुपक्षीय मंच छोटे और कमज़ोर देशों को वैश्विक निर्णयों में भागीदारी का अवसर देते हैं। भारत द्वारा आयोजित "वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ" शिखर सम्मेलन इस बात का उदाहरण है कि कैसे विकासशील देशों के हितों को उभारा जा सकता है। आई एम एफ और विश्व बैंक जैसे संस्थान आर्थिक स्थिरता और विकास में सहायक हैं। भारत जैसे देश को जी20 और डबल्यू टी ओ  के माध्यम से निवेश, व्यापार और विकास परियोजनाओं में साझेदारी का अवसर प्राप्त होता है। संयुक्त राष्ट्र की सतत विकास लक्ष्य रिपोर्टिंग और डबल्यू टी ओ  में एन जी ओ की भागीदारी वैश्विक निर्णयों में पारदर्शिता सुनिश्चित करती है। इससे शासन प्रणाली में विश्वास भी बढ़ता है। लाइफ अभियान और अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन जैसे प्रयास भारत की सॉफ्ट पॉवर और मानदंड आधारित कूटनीति का उदाहरण हैं। ये पहल वैश्विक नैतिकताओं और पर्यावरणीय लक्ष्यों को बढ़ावा देती हैं। आतंकवाद, साइबर सुरक्षा और महामारी जैसी चुनौतियों से निपटने में बहुपक्षीय सहयोग अत्यंत आवश्यक है। संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना और आतंकवाद-रोधी समिति जैसे मंच सुरक्षा तंत्र को मजबूत करते हैं। 2008 का आर्थिक संकट और कोविड-19 महामारी ऐसे उदाहरण हैं जब जी20 और डबल्यू एच ओ जैसे मंचों ने तेज़, समन्वित और न्यायपूर्ण हस्तक्षेप की भूमिका निभाई। इससे वैश्विक पुनर्प्राप्ति और लचीलापन सुनिश्चित हुआ। बहुपक्षीय मंचों की प्रासंगिकता में गिरावट के कारण पर गौर करें तो अमेरिका, चीन और रूस जैसी शक्तियों के बीच वैचारिक टकराव से बहुपक्षीय मंचों की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। रूस-यूक्रेन युद्ध में संयुक्त राष्ट्र की निष्क्रियता इसका उदाहरण है। भारत-पाक तनाव के बीच आई एम एफ  द्वारा पाकिस्तान को ऋण देना इसी प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है। देश अब बहुपक्षीयता के स्थान पर द्विपक्षीय समझौतों को प्राथमिकता दे रहे हैं। भारत-ऑस्ट्रेलिया आर्थिक सहयोग और भारत-यू ए ई मुद्रा स्वैप जैसे समझौते इसका प्रमाण हैं। डबल्यू टी ओ  की दोहा वार्ता लंबे समय से रुकी हुई है, जिससे इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न उठते हैं। कई बहुपक्षीय समझौते स्वैच्छिक अनुपालन पर आधारित होते हैं। जलवायु समझौतों में भी कई बार देशों द्वारा लक्ष्यों की अवहेलना देखी गई है। इस पर निगरानी और दंड का अभाव कार्यान्वयन को कमजोर करता है।यू एन एस सी जैसे मंचों में स्थायी सदस्यता की व्यवस्था आज भी 1945 की संरचना पर आधारित है। भारत जैसे देश की स्थायी सदस्यता की मांग वर्षों से लंबित है। इस असमानता से विकासशील देशों का विश्वास कमजोर होता है।बहुपक्षीय संस्थाएं अक्सर धीमी, अक्षम और नौकरशाही से ग्रसित होती हैं। तेज़ निर्णय लेने और नवाचार की क्षमता की कमी उन्हें बदलती वैश्विक आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं बनाती। आईये देखते हैं भारत की रणनीतिक दिशा: सिद्धांत और व्यावहारिकता के संतुलन पर।  भारत को यू एन, डबल्यू टी ओ और आई एम एफ जैसे संस्थानों में संरचनात्मक सुधार की वकालत करनी चाहिए, ताकि उन्हें अधिक समावेशी, उत्तरदायी और प्रासंगिक बनाया जा सके। भारत की यू एन एस सी  में स्थायी सदस्यता की मांग इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। भारत को जहाँ एक ओर पारंपरिक मंचों में सक्रिय रहना है, वहीं क्वाड, आई 2 यू 2 और ब्रिक्स जैसे केंद्रित गठबंधनों में अपनी भागीदारी को भी मजबूत करना है। इससे उसे लचीले और तीव्र निर्णय लेने वाले सहयोग का लाभ मिलेगा। भारत को अमेरिका, जापान और यूरोपीय संघ जैसे विकसित देशों के साथ तकनीकी, आर्थिक और रणनीतिक सहयोग को गहराना होगा, ताकि वह वैश्विक नेतृत्व में प्रभावशाली भूमिका निभा सके। भारत को विकासशील देशों की आवाज़ को वैश्विक मंचों पर प्रस्तुत करने के अपने प्रयासों को और मजबूत करना चाहिए। जलवायु न्याय, खाद्य सुरक्षा और वित्तीय समानता जैसे मुद्दों पर उसे नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढाँचा, डिजिटल पेमेंट, और फिनटेक में भारत की सफलता को वैश्विक मॉडल के रूप में प्रस्तुत कर उसे सॉफ्ट पॉवर के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए।अंत में कह सकते हैं कि  भारत आज एक ऐसे मुकाम पर खड़ा है जहाँ वह बहुपक्षीयता की नैतिकता और क्षेत्रीय व्यावहारिकता के बीच संतुलन बनाकर वैश्विक व्यवस्था को अधिक उत्तरदायी, समावेशी और स्थायी बना सकता है। उसे चाहिए कि वह अपने रणनीतिक हितों की रक्षा करते हुए वैश्विक नेतृत्व के नैतिक और व्यावहारिक पहलुओं को समरस कर सके। इसके लिए भारत को अपनी नीतियों में सतत सुधार, बहुपक्षीय मंचों में सक्रिय भागीदारी और लघु गठबंधनों के प्रति लचीला दृष्टिकोण अपनाना होगा। यही सिद्धांत और व्यावहारिकता का मिश्रण भारत को एक उत्तरदायी वैश्विक शक्ति में रूपांतरित कर सकता है।

 

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