भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इस में कोई दो राय नहीं है कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था आज ऐसे मोड़ पर आ खड़ी है जहां आम नागरिक की सेहत और जिंदगी दोनों गहरी असुरक्षा में घिरी नजर आती है। एक तरफ सरकारी अस्पतालों की बदहाल स्थिति है, तो दूसरी ओर निजी अस्पतालों की फीस आम इंसान की पहुंच से बाहर होती जा रही है। नतीजा यह है कि गरीब, निम्न-मध्यम वर्ग और ग्रामीण क्षेत्र के लोग इलाज के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी, टूटी हुई मशीनें, लंबी कतारें और साफ-सफाई का अभाव अब किसी एक राज्य तक सीमित नहीं रह गया है। एम्स और पी.जी.आई. जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी ऑपरेशन के लिए छह-छह महीने की वेटिंग लिस्ट आम हो गई है। ग्रामीण भारत में हालात और भी गंभीर हैं—प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर नहीं, दवा नहीं, और इमरजेंसी सेवाएं तो नाम मात्र की हैं। जो लोग सरकारी व्यवस्था से निराश होकर निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं, वहां उन्हें इलाज से ज्यादा बिल की चिंता सताने लगती है। साधारण सर्जरी पर लाखों का बिल और सामान्य वायरल बुखार पर हजारों रुपये की जांच लिखी जा रही है। कोरोना काल के बाद तो निजी चिकित्सा संस्थानों ने जैसे मुनाफाखोरी की खुली छूट पा ली हो। एक मरीज के लिए एम आर आई, सी टी स्कैन, आई सी यू चार्ज और दवाओं की लागत इतनी हो जाती है कि कई परिवार कर्ज में डूब जाते हैं या जमीन-जायदाद बेचने को मजबूर हो जाते हैं। बीमा कंपनियों की शर्तें भी इतनी जटिल हैं कि सही समय पर लाभ मिलना मुश्किल हो जाता है। भारत की 65% आबादी गांवों में रहती है, लेकिन देश की स्वास्थ्य सेवाओं का केवल 25% ही ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध है। जहां पहुंच है भी, वहां स्वास्थ्यकर्मी नियमित नहीं आते, और दवाओं का टोटा आम बात है। आदिवासी इलाकों और पूर्वोत्तर राज्यों में तो हालात और भी भयावह हैं, जहां छोटी बीमारियां भी जानलेवा बन जाती हैं। सरकारें लगातार नई योजनाओं की घोषणा करती हैं—आयुष्मान भारत, हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर मिशन, टेलीमेडिसिन प्रोजेक्ट्स—लेकिन इनका लाभ जमीनी स्तर पर बहुत सीमित लोगों को मिल रहा है। आंकड़ों में सुधार दिखाने के लिए फर्जी रजिस्ट्रेशन और आंकड़ों की बाजीगरी आम हो गई है। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर जोर देखें तो शहरी नहीं, ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में पी एच सी और सी एच सी को मजबूत करना प्राथमिकता होनी चाहिए। सरकारी स्वास्थ्य बजट में वृद्धि की बात आती है तो भारत का स्वास्थ्य बजट अभी भी जी डी पी का 2% से भी कम है, जिसे कम-से-कम 3.5% तक लाया जाना चाहिए। निजी अस्पतालों के लिए नियामक कानून के मद्देनजर ट्रीटमेंट चार्ज पर नियंत्रण और पारदर्शिता जरूरी है।बीमा प्रणाली में सुधार की जरूरत है। सरकारी बीमा योजनाओं का दायरा और प्रभावशीलता बढ़ाई जाए। भारत के नागरिक आज दोहरी मार झेल रहे हैं—सरकारी चिकित्सा व्यवस्था की विफलता और निजी स्वास्थ्य सेवा का आर्थिक उत्पीड़न। अगर स्वास्थ्य को मूलभूत अधिकार की तरह नहीं लिया गया, तो आने वाले वर्षों में सिर्फ बीमारियां नहीं, बल्कि इलाज की लागत भी गरीबों को तबाह करती रहेगी।