Saturday, July 12, 2025
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संपादकीय

Preparedness before disaster is the real protection: Technology and local power are essential in the path of climate-friendly India! : आपदा से पहले तैयारी ही असली बचाव: जलवायु-अनुकूल भारत की राह में तकनीक और स्थानीय शक्ति जरूरी!

July 10, 2025 08:50 PM

भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़  

इस में कोई दो राय नहीं है भारत की आपदा प्रबंधन व्यवस्था एक बुनियादी विरोधाभास से जूझ रही है: एक ओर जहाँ वित्त आयोगों ने समय के साथ वित्तीय संसाधनों को सुदृढ़ किया है, वहीं दूसरी ओर देश की भेद्यताएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। आपदाओं से होने वाले आर्थिक नुकसान अब प्रतिवर्ष ₹50,000 करोड़ से अधिक हो चुके हैं। अम्फान और तौकते जैसे चक्रवातों, बंगलुरु, असम और चेन्नई में आई विनाशकारी बाढ़ों तथा वायनाड में हुए भू-स्खलनों का असर यह स्पष्ट कर चुका है कि किस प्रकार प्राकृतिक आपदाएँ बार-बार जीवन एवं अर्थव्यवस्था पर भीषण चोट पहुँचा रही हैं। अब प्रश्न यह नहीं है कि क्या भारत आपदा तैयारियों में निवेश करने का जोखिम उठा सकता है, बल्कि यह है कि क्या यह तेज़ी से अप्रत्याशित जलवायु के लगातार अस्थिर होते भविष्य के प्रति समुत्थानशीलन स्थापित करने के अपने दृष्टिकोण की मौलिक रूप से पुनर्कल्पना नहीं कर सकता है। आइये समझते हैं कि भारत के समक्ष प्रमुख आपदा खतरों के बारे में। जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में हीट वेव्स में वृद्धि हो रही है, जो नगरीय ऊष्मा द्वीप प्रभाव के कारण शहरों में और भी अधिक बढ़ गई है। वर्ष 2024 में, दिल्ली में 49.9°C तापमान दर्ज किया गया। आई एम डी ने उत्तर भारत में वर्ष 2000-2020 के दौरान हीटवेव के दिनों में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की। ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय में हिमनदों के तेज़ी से पिघलने से आकस्मिक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएँ हो रही हैं। ये घटनाएँ अनियंत्रित जलविद्युत परियोजनाओं एवं संवेदनशील क्षेत्रों में वनों की कटाई से और भी बदतर हो रही हैं।यह संकट सीमा पार— नेपाल, भूटान और उत्तरी भारतीय राज्यों पर समान रूप से प्रभाव डाल रहा है।वर्ष 2023 में सिक्किम में एक ग्लेशियल झील के फटने से आई बाढ़ में 74 लोगों की मौत हो गई थी। ISRO ने पाया कि हिमालय की 2,000 से अधिक ग्लेशियल झीलें खतरे में हैं।अरब सागर में चक्रवातों की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ रही है, जो भारत के पश्चिमी तट के लिये ऐतिहासिक रूप से दुर्लभ, परंतु एक नया बदलाव है। गर्म होते महासागर तूफानों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे गुजरात, महाराष्ट्र और केरल जैसे तटीय राज्य खतरे में पड़ रहे हैं। शहरी तटीय आबादी और बंदरगाह अर्थव्यवस्थाएँ अत्यधिक असुरक्षित हैं। चक्रवात बिपरजॉय (वर्ष 2023) अरब सागर का सबसे लंबा चक्रवात था, जिसने गुजरात में 94,000 लोगों को विस्थापित किया। अब मानसून के दौरान शहरी क्षेत्रों में बाढ़ की घटनाएँ आम होती जा रही हैं, जिनका मुख्य कारण अकुशल जल निकासी व्यवस्था, अतिक्रमण और अधोसंरचना की विफलता है। तेज़ी से हो रहा अनियोजित शहरीकरण भूमि की जल-अवशोषण क्षमता को घटाता है जिससे जलभराव की समस्या और गंभीर हो जाती है। जलवायु में हो रहे उतार-चढ़ाव के कारण अब अल्पकालिक लेकिन तीव्र वर्षा की घटनाएँ बढ़ रही हैं, जो मौज़ूदा प्रणालियों को पूरी तरह असमर्थ बना देती हैं।जुलाई 2023 में, दिल्ली में यमुना का जलस्तर 45 वर्षों में अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच गया, जिससे कई प्रमुख क्षेत्र जलमग्न हो गए। भारत के उत्तर और उत्तर-पूर्व में, जो दोनों ही उच्च भूकंपीय क्षेत्र हैं, भूकंपीय खतरे पर अभी भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। भवन निर्माण नियमों का पालन न करने और अनियमित निर्माण से जोखिम बढ़ रहा है। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि इस क्षेत्र में एक विध्वंसकारी भूकंप आने की आशंका है। अत्यधिक जल दोहन, मानसून की अनियमितता तथा कृषि में असक्षमता भारत के जल संकट को और गंभीर बना रही है। देश के मध्य तथा दक्षिणी राज्य लगातार सूखा-प्रवण होते जा रहे हैं और भूजल स्तर तेज़ी से घट रहा है। यह संकट केवल पारिस्थितिक नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक तनाव और अंतर-राज्यीय संघर्षों से भी जुड़ा हुआ है।बढ़ते तापमान और लंबी शुष्क अवधि के कारण पारिस्थितिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में वनों में आग लगने की घटनाएँ बढ़ रही हैं। अपर्याप्त वन प्रबंधन, मानवीय हस्तक्षेप और आक्रामक प्रजातियाँ इस संकट को और गहरा करती हैं। ये वनाग्नियाँ जैवविविधता, जनजातीय समुदायों/ आदिवासियों की आजीविका और प्राकृतिक 'कार्बन सिंक' के लिये बड़ा खतरा बनती जा रही हैं।भारत का 7,500 किलोमीटर लंबा समुद्री तट समुद्र-स्तर वृद्धि से गंभीर संकट में है, जिससे भूमि क्षरण, लवणता की वृद्धि और आजीविका पर संकट बढ़ा है। बंदरगाहों और पर्यटन पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। मैंग्रोव विनाश और रेत उत्खनन जैसे मानवीय हस्तक्षेप इस संकट को और तीव्र बना रहे हैं। गर हम ध्यान दें कि भारत की मौजूदा आपदा प्रबंधन प्रणाली पर क्यों ये आधुनिक आपदा चुनौतियों के लिये अपर्याप्त हैं तो इसके कारणों में विरासती कार्यढाँचा समुत्थानशीलन के बजाय राहत पर केंद्रित,अपर्याप्त स्थानीय शासन और विकेंद्रीकरण,जलवायु विज्ञान के साथ जोखिम नियोजन का अपर्याप्त समन्वय, शहरी भेद्यता और बुनियादी अवसंरचना का पतन, पूर्वानुमान और पूर्व चेतावनी प्रणालियों में तकनीकी खामियाँ, सुभेद्य आपूर्ति शृंखलाएँ और परस्पर निर्भरताएँ, अपर्याप्त वित्त पोषण और असंगत संस्थागत कार्यढाँचा आदि शामिल हैं। भारत अधिक सुदृढ़ आपदा प्रतिरोधक प्रणाली बनाने के लिये कई तरीके लागू कर सकता है जैसे शहरी और बुनियादी अवसंरचना की योजना में जलवायु-जोखिम मुख्यधारा को संस्थागत बनाना, विकेंद्रीकृत बहु-क्षेत्रीय जोखिम मानचित्रण और कार्रवाई प्रकोष्ठों की स्थापना, शमन के लिये समर्पित पूंजीगत व्यय के साथ एक राष्ट्रीय लचीलापन कोष का निर्माण, सभी क्षेत्रों के लिये आपदा-रोधी अवसंरचना संहिता को संहिताबद्ध करना, जोखिम-संवेदनशील वित्तीय उपकरण और बीमा पारिस्थितिकी तंत्र, समुदाय-नेतृत्व वाली प्रारंभिक चेतावनी और प्रतिक्रिया प्रोटोकॉल को संस्थागत बनाना, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों में आपदा-प्रतिरोधी क्षमता को एकीकृत करना, पाठ्यक्रम और कार्यबल प्रशिक्षण में आपदा जोखिम शिक्षा को संस्थागत बनाना, निजी क्षेत्र की निरंतरता योजना और सी एस आर जोखिम वित्तपोषण को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाना, इको-डीआरआर मॉडल के माध्यम से प्राकृतिक बफर्स को पुनर्स्थापित और संरक्षित करना, जलवायु और आपदा पेशेवरों का एक राष्ट्रीय कैडर बनाना शामिल हैं। अंत में कह सकते हैं कि आपदा-प्रतिरोधी भारत के निर्माण के लिये, वर्तमान प्रतिक्रियात्मक कार्यढाँचे को एक सक्रिय, जलवायु-अनुकूल और स्थानीय रूप से सशक्त प्रणाली के रूप में विकसित होना होगा। प्रौद्योगिकी, समता और पारिस्थितिकी तंत्र-आधारित रणनीतियों का एकीकरण अब वैकल्पिक नहीं रहा, बल्कि यह अत्यावश्यक है। आपदा जोखिम न्यूनीकरण को सभी क्षेत्रों में मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये, न कि केवल आपातकालीन प्रतिक्रिया के रूप में सीमित किया जाना चाहिये। यह सेंडाई कार्यढाँचे की प्राथमिकताओं: जोखिम समझ, शासन, लचीलापन निवेश और ‘बिल्ड बैक बेटर’ के लिये तैयारी, के बिल्कुल अनुरूप है।

 

 

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