भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
बिहार—यह नाम कभी प्राचीन शिक्षा, विद्या और सभ्यता का पर्याय था। नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों की धरती, आज देश के सबसे पिछड़े राज्यों की सूची में गिना जाता है। यह विडंबना ही है कि जिस भूमि से बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया, वहीं आज बेरोजगारी, बदहाली और पलायन की त्रासदी हावी है। हर साल लाखों बिहारी युवाओं को रोज़गार, शिक्षा और बेहतर जीवन की तलाश में अपना घर छोड़कर महानगरों की ओर रुख करना पड़ता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय और नीति आयोग की रिपोर्टें यह दर्शाती हैं कि बिहार से होने वाला अंतर्राज्यीय पलायन देश में सर्वाधिक है। वर्ष 2021 में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार की बेरोजगारी दर 12% के पार थी, जो राष्ट्रीय औसत से काफी ऊपर रही। यह स्थिति तब है जब बिहार की कुल जनसंख्या 13 करोड़ के करीब है। हर साल अनुमानतः 25 से 30 लाख लोग बिहार से उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में रोज़गार के लिए पलायन करते हैं। इनमें से अधिकांश प्रवासी श्रमिक होते हैं जो निर्माण, कृषि, फैक्ट्री और घरेलू सेवा जैसे असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं। आइये समझते हैं इस महापलायन का कारण। बिहार में औद्योगिकीकरण लगभग नगण्य है। सीमित निजी निवेश, खराब इंफ्रास्ट्रक्चर, और भूमि अधिग्रहण में जटिलताएं यहां के युवाओं को स्थानीय अवसरों से वंचित कर देती हैं। सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित है और भर्तियों में सालों की देरी आम बात हो चुकी है। राज्य में उच्च शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है। सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव, शिक्षकों की कमी और संसाधनों की दुर्बलता छात्रों को बाहर पढ़ाई के लिए मजबूर करती है। कोचिंग हब्स जैसे पटना, मुजफ्फरपुर, या बाहर के कोटा और दिल्ली की ओर छात्रों का रुख शिक्षा पलायन का बड़ा कारण है। कोरोना महामारी के दौरान बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खुल गई। न अस्पतालों में बेड थे, न ऑक्सीजन, न दवाएं। यह न सिर्फ जीवन रक्षा में असमर्थता को दर्शाता है, बल्कि राज्य की प्रशासनिक अक्षमता का प्रमाण भी है। गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए आज भी लोग दिल्ली, कोलकाता या मुंबई का रुख करते हैं। हर साल आने वाली बाढ़ उत्तर बिहार की स्थायी त्रासदी बन चुकी है। कोसी और गंडक जैसी नदियों का कहर लाखों परिवारों को बेघर करता है। फसलें बर्बाद होती हैं, रोजगार ठप्प हो जाता है, और लोग शहरों की ओर पलायन को विवश हो जाते हैं। बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों में उलझी हुई है। विकास और रोजगार जैसे बुनियादी मुद्दे अक्सर चुनावी रैलियों में खो जाते हैं। बदलती सरकारें योजनाएं तो बनाती हैं, पर उनका क्रियान्वयन ज़मीन पर कहीं नहीं दिखता। “सात निश्चय योजना”, “बिहार स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड”, या “बिहार उद्योग नीति”—ये सब योजनाएं कागज़ों पर शानदार, पर धरातल पर अधूरी। लगातार बिहार से पलायन के चलते जहां बिहार को मानव संसाधन का भारी नुकसान हो रहा है तो वहीं अन्य नुकसान भी किसी से छिपे नहीं है। पलायन बिहार के लिए केवल जनसंख्या ह्रास नहीं है, यह एक सामाजिक और आर्थिक क्षति है। जो लोग बाहर जाते हैं, वे राज्य के सबसे कार्यकुशल, युवा और उत्पादक नागरिक होते हैं। जब राज्य का ऊर्जावान तबका कहीं और की अर्थव्यवस्था मजबूत करे, तो खुद की नींव कैसे मजबूत होगी? इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक और शिक्षक जैसे पेशेवर वर्ग बड़े शहरों में बस जाते हैं, जिससे राज्य का बौद्धिक आधार कमजोर होता जाता है। पलायन के कारण परिवार बिखर रहे हैं। महिलाएं और बुज़ुर्ग अकेले रह जाते हैं, जिससे सामाजिक सुरक्षा का ताना-बाना टूटता है। जब खर्च करने वाले लोग बाहर कमाने और वहीं खर्च करने लगें, तो स्थानीय व्यापार और सेवा क्षेत्र को कभी न भरपाई होने वाला नुकसान होता है। गर हम राज्य सरकारों की बात करें तो इसकी अप्रत्यक्ष जिम्मेवारी की डोर उनके हाथ भी आती प्रतीत होती है। बिहार की सरकारों ने समय-समय पर विकास की घोषणाएं तो की हैं, लेकिन धरातल पर क्रियान्वयन कमजोर रहा है। आईटी पार्क, टेक्सटाइल हब या खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों जैसी योजनाएं या तो शुरू ही नहीं हुईं या अधूरी रह गईं। विकास योजनाएं अक्सर विपक्ष और सत्ता के बीच की खींचतान में उलझकर रह जाती हैं। उदाहरण के तौर पर, “नल जल योजना” में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। कोरोना लॉकडाउन के दौरान लाखों मजदूर बिहार लौटे थे, लेकिन उनके लिए स्थायी रोजगार या कौशल विकास की कोई ठोस व्यवस्था नहीं की गई। एसा नहीं है बिहार में सब कुछ गलत ही होता रहा है यहां सबके आपसी सहयोग से कुछ सकारात्मक प्रयास भी हुए हैं। कुछ युवाओं ने इस नीति के तहत स्थानीय स्तर पर उद्यम शुरू किए हैं, लेकिन उन्हें उचित मार्केट और स्केलिंग की सुविधा नहीं मिल रही। राज्य सरकार ने पलायन करने वाले श्रमिकों की सूची बनाने की कोशिश की है, जिससे भविष्य में उन्हें योजनाओं से जोड़ा जा सके।यदि गंभीरता से प्रोत्साहित किया जाए, तो पर्यटन भी स्थानीय रोजगार का बड़ा साधन बन सकता है। अगर बिहार को भला चाहते हो तो इस खूबसूरत राज्य को पलायन की भूमि से प्रवास की भूमि बनाना होगा — जहां लोग मजबूरी में नहीं, अवसरों की तलाश में जाएं और फिर लौटें भी। बिहार के कृषि संसाधनों और हस्तशिल्प में अपार संभावनाएं हैं। खाद्य प्रसंस्करण, डेयरी, मछली पालन, और मधुमक्खी पालन जैसे क्षेत्रों में निवेश को बढ़ावा देना होगा। को-ऑपरेटिव मॉडल को अपनाकर गांवों में ही रोजगार सृजन संभव है। राज्य के हर जिले में आधुनिक कौशल विकास संस्थान खोलने होंगे, जो युवाओं को उनके क्षेत्रीय संसाधनों के अनुसार प्रशिक्षण दें। इससे युवाओं को स्वरोजगार के अवसर मिलेंगे। बिहार के गांवों तक डिजिटल कनेक्टिविटी को पहुंचाकर युवाओं को ई-कॉमर्स, डिजिटल मार्केटिंग, और फ्रीलांसिंग जैसे क्षेत्रों में जोड़ना होगा। सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता सुधारने, शिक्षकों की नियमित भर्ती, और कॉलेजों में तकनीकी शिक्षा पर बल देने की आवश्यकता है। साथ ही, छात्रवृत्तियों और फेलोशिप्स को पारदर्शी और समयबद्ध बनाना होगा। महिला स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा देकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया जा सकता है। साथ ही, उनके लिए ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स तक पहुंच सुनिश्चित करना भी जरूरी है। अंत में कह सकते हैं कि बिहार की वर्तमान तस्वीर निराशाजनक जरूर है, लेकिन इसकी संभावनाएं अभी खत्म नहीं हुई हैं। यहां का युवा आज भी संघर्षशील है, यहां की भूमि आज भी उपजाऊ है, और यहां की संस्कृति आज भी जीवंत है। जरूरत है तो बस एक राजनीतिक इच्छाशक्ति, सतत योजना, और ज़मीनी स्तर पर क्रियान्वयन की। अगर सरकारें, समाज और जनता मिलकर काम करें, तो वह दिन दूर नहीं जब बिहार केवल पलायन का नहीं, प्रवास और विकास का पर्याय बनेगा।