भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
यह सच है कि तेल अवीव से न्यूयॉर्क और लंदन से पेरिस तक, यहूदी समुदाय आज पहले से कहीं अधिक वैश्विक आलोचना और सामाजिक अलगाव की आशंका से घिरा हुआ महसूस कर रहा है। विशेषकर 7 अक्टूबर 2023 के बाद से, जब इज़राइल और हमास के बीच खूनी संघर्ष ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान खींचा, तब से यहूदियों को आशंका है कि वैश्विक स्तर पर उनके खिलाफ एक सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार की लहर उठ सकती है। गाज़ा पट्टी में इज़राइली सैन्य कार्रवाई और वहां हो रही भारी नागरिक हताहतों की खबरों ने दुनिया भर में विरोध प्रदर्शन को जन्म दिया है। अनेक देशों में इज़राइल के खिलाफ ज़ोरदार विरोध और बहिष्कार की मांगें उठने लगी हैं। ऐसे में दुनिया के कई हिस्सों में रहने वाले यहूदी खुद को असहज और असुरक्षित महसूस करने लगे हैं, क्योंकि उनका संबंध सीधे इज़राइल से जोड़ा जा रहा है। बी डी एस यानी "बॉयकॉट, डिवेस्टमेंट एंड सैंक्शन" आंदोलन, जो इज़राइल के आर्थिक, सांस्कृतिक और अकादमिक बहिष्कार की मांग करता है, ने भी यहूदी समुदाय की चिंताओं को और हवा दी है। हाल ही में अमेरिका और यूरोप के कई विश्वविद्यालयों में इज़राइल के खिलाफ प्रदर्शन और बहिष्कार की मांगों ने यहूदी छात्रों को असहज स्थिति में डाल दिया है। कई जगहों पर यहूदी छात्रों को धमकियां मिलीं, उनकी पहचान को निशाना बनाया गया और अकादमिक अवसरों से वंचित किया गया। दूसरी ओर एंटी-सेमिटिज़्म (यहूदी विरोधी भावना) की घटनाओं में हाल के महीनों में तेज़ी से वृद्धि देखी गई है। फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में यहूदी पूजा स्थलों, दुकानों और सामुदायिक केंद्रों पर हमले और तोड़फोड़ की घटनाएं सामने आई हैं। केवल इज़राइल के राजनीतिक निर्णयों के आधार पर पूरी यहूदी आबादी को दोष देना, एक खतरनाक मानसिकता को जन्म दे रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि राजनीतिक असहमति और सांप्रदायिक नफरत के बीच अंतर करना बेहद ज़रूरी है। इज़राइल सरकार की नीतियों की आलोचना को यहूदी विरोध के रूप में देखना उचित नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि कई बार विरोध की भाषा सीमाएं लांघकर सीधे यहूदियों को निशाना बना रही है। अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन और यहूदी संस्थान इस दिशा में लगातार सतर्क हैं। वे सोशल मीडिया, शैक्षणिक संस्थानों और कार्यस्थलों पर यहूदी विरोधी भेदभाव के मामलों की निगरानी कर रहे हैं और सरकारों से कड़े कदम उठाने की मांग कर रहे हैं। अगर हम इस घटनाक्रम को लेकर भारत में स्थिति की बात करें तो भारत में यहूदी समुदाय की संख्या भले ही सीमित हो, लेकिन यहां का सामाजिक माहौल तुलनात्मक रूप से शांतिपूर्ण रहा है। भारत-इज़राइल संबंध भी आर्थिक, तकनीकी और रक्षा मामलों में प्रगाढ़ हुए हैं। हालांकि, सोशल मीडिया पर इज़राइल विरोधी ट्रेंड का प्रभाव यहां भी देखा गया है, जिससे यहूदी समुदाय सतर्क हो गया है। आज जब दुनिया वैश्विक एकता और मानवाधिकारों की बात करती है, तब यह ज़रूरी है कि राजनीतिक मतभेदों को सांप्रदायिक रंग न दिया जाए। यहूदी समुदाय को लेकर वैश्विक स्तर पर जो भय का माहौल बन रहा है, उसे खत्म करने के लिए समाज, सरकार और मीडिया को मिलकर काम करना होगा। इज़राइल की नीतियों की आलोचना करना एक लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन इसके बहाने किसी धर्म या जाति विशेष के लोगों को अलग-थलग करना न केवल अनुचित है, बल्कि खतरनाक भी है। अगर यह प्रवृत्ति नहीं रोकी गई तो यह वैश्विक भाईचारे के ताने-बाने को गहरा नुकसान पहुँचा सकती है।