भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इस में कोई दो राय नहीं है कि भारत की विदेश नीति हमेशा से संतुलन साधने की कला रही है। शीतयुद्ध के दौर में ‘गुटनिरपेक्ष आंदोलन’ के नेतृत्व से लेकर आज बहुध्रुवीय वैश्विक राजनीति तक, भारत ने अपने हितों को सर्वोपरि रखते हुए किसी एक ध्रुव पर पूरी तरह झुकने के बजाय रणनीतिक लचीलापन अपनाया है। आज जब रूस और अमेरिका दोनों ही भारत को अपने-अपने खेमे में खींचने की कोशिश कर रहे हैं, तब यह सवाल उठता है कि आखिर भारत के लिए किसके साथ खड़ा होना ज़्यादा फ़ायदेमंद सौदा साबित होगा? गर हम इतिहास के पन्नों को खोलें तो पायेंगे कि भारत और रूस (पूर्व सोवियत संघ) के रिश्तों की नींव 1950 के दशक में पड़ी। सोवियत संघ ने भारत को भारी उद्योग, अंतरिक्ष कार्यक्रम और रक्षा क्षेत्र में तकनीकी सहयोग देकर मजबूत किया। रूस आज भी भारत का सबसे बड़ा रक्षा साझेदार है—करीब 60-65% भारतीय सैन्य साजो-सामान रूसी तकनीक पर आधारित है। ब्रह्मोस मिसाइल, सुखोई-30 और एस-400 जैसी सैन्य परियोजनाएँ भारत-रूस सहयोग का प्रतीक हैं। रूस ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत का साथ दिया है। चाहे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर मुद्दे पर भारत के पक्ष में वीटो करना हो या ऊर्जा क्षेत्र में दीर्घकालिक समझौते, रूस ने हमेशा ‘विश्वसनीय सहयोगी’ की छवि बनाए रखी। मगर यह भी सच है कि पिछले दो दशकों में भारत-अमेरिका संबंधों ने नई ऊँचाइयाँ छुई हैं। 2005 का न्यूक्लियर डील इस रिश्ते का टर्निंग पॉइंट था। अमेरिका भारत को एशिया में चीन की बढ़ती ताकत का संतुलन बनाने वाले रणनीतिक साझेदार के रूप में देखता है।आज भारत और अमेरिका क्वाड गठबंधन के तहत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में मिलकर काम कर रहे हैं। रक्षा अभ्यास ‘मालाबार’ से लेकर साइबर सुरक्षा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और व्यापार तक, दोनों देशों का सहयोग तेज़ी से बढ़ रहा है। अमेरिकी कंपनियाँ भारत में सबसे बड़े निवेशकों में शामिल हैं, जिससे स्टार्टअप इकोसिस्टम और टेक्नोलॉजी सेक्टर को मजबूती मिली है। भारत की सबसे बड़ी चुनौती ऊर्जा सुरक्षा है। रूस ने सस्ते तेल और गैस सप्लाई देकर भारत की इस ज़रूरत को पूरा किया है। यूक्रेन युद्ध के बाद जब पश्चिमी देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाए, तब भारत ने सस्ते दाम पर रूसी कच्चा तेल खरीदा और अपनी अर्थव्यवस्था को राहत दी। दूसरी ओर, अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। आईटी, फार्मा, सर्विस सेक्टर और कृषि निर्यात में भारत को अमेरिकी बाज़ार से भारी लाभ होता है। अमेरिका के साथ मजबूत संबंध भारत को वैश्विक सप्लाई चेन का अहम हिस्सा बनाने में मदद कर सकते हैं। रूस भारत को रक्षा तकनीक देता है, लेकिन पश्चिमी प्रतिबंधों के चलते रूस की तकनीकी क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं। लंबे समय तक रूसी हथियारों पर निर्भर रहना भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को सीमित कर सकता है। अमेरिका उन्नत तकनीक और इंडो-पैसिफिक में सैन्य सहयोग देता है, जिससे भारत को चीन के खिलाफ संतुलन साधने में मदद मिलती है। लेकिन अमेरिका के साथ अधिक नज़दीकी का मतलब है कि भारत पर उसकी नीतियों और दबाव का असर भी बढ़ सकता है, जैसे रूस या ईरान से हथियार और तेल खरीदने पर अमेरिकी आपत्ति। भारत की सबसे बड़ी चुनौती चीन है। रूस और चीन आज करीबी साझेदार हैं, जबकि अमेरिका चीन को सीधी चुनौती देने वाला सबसे बड़ा शक्ति केंद्र है। अगर भारत चीन से तनाव कम करना चाहता है, तो रूस एक ‘बैलेंसिंग एक्ट’ में मददगार साबित हो सकता है। लेकिन अगर भारत चीन के विस्तारवाद का जवाब सख्ती से देना चाहता है, तो अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी ज़्यादा असरदार होगी। भारत के भीतर जनमत भी विभाजित है। एक वर्ग मानता है कि रूस पारंपरिक सहयोगी है और मुश्किल समय में हमेशा भारत के साथ खड़ा रहा है। वहीं दूसरा वर्ग मानता है कि अमेरिका के साथ साझेदारी भारत की आर्थिक और तकनीकी प्रगति के लिए आवश्यक है। भारत की विदेश नीति आज "बहु-ध्रुवीय कूटनीति" की ओर झुकी हुई है, जहां किसी एक ध्रुव पर निर्भरता नहीं, बल्कि सभी के साथ रणनीतिक साझेदारी ही वास्तविक ताकत है। भारत के लिए सबसे फ़ायदेमंद सौदा यह नहीं है कि वह रूस या अमेरिका में से किसी एक का साथ चुने, बल्कि यह है कि वह दोनों के साथ अपने संबंधों का संतुलन बनाए रखे। रूस से रक्षा सहयोग, ऊर्जा आपूर्ति और अंतरिक्ष तकनीक। अमेरिका से निवेश, टेक्नोलॉजी, वैश्विक सप्लाई चेन और सामरिक सहयोग। यानी भारत को "रणनीतिक स्वायत्तता" की नीति पर चलते हुए दोनों ताकतों से अपने हित साधने होंगे। भारत के लिए रूस और अमेरिका दोनों ही ज़रूरी हैं—रूस स्थायी और भरोसेमंद साथी की तरह, जबकि अमेरिका भविष्य की वैश्विक अर्थव्यवस्था और तकनीक से जोड़ने वाला साझेदार। सवाल यह नहीं है कि भारत किसका साथ दे, बल्कि यह है कि भारत कब, किस मुद्दे पर और कितनी दूर तक किसी के साथ खड़ा होता है। आज की दुनिया में जीत उसी की होगी जो संतुलन साध सके—और भारत फिलहाल यही कर रहा है।