भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
यह सच है कि 21वीं सदी में मानवता के सामने खड़ी सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है — जलवायु परिवर्तन। यह संकट केवल पर्यावरण का नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अस्तित्व का प्रश्न बन चुका है। बढ़ता वैश्विक तापमान, समुद्र स्तर में वृद्धि और तीव्र मौसमी आपदाएं न केवल जीवन को प्रभावित कर रही हैं, बल्कि करोड़ों लोगों के भविष्य को भी खतरे में डाल रही हैं। इस वैश्विक चुनौती के बीच भारत एक जिम्मेदार और सक्रिय राष्ट्र के रूप में उभर रहा है, जो न केवल खुद को बल्कि दुनिया को भी दिशा देने की भूमिका निभा रहा है। भारत जैसे विविधतापूर्ण, विशाल जनसंख्या और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए जलवायु परिवर्तन से निपटना अत्यंत चुनौतीपूर्ण है। फिर भी भारत ने अपनी नीतियों, कार्यक्रमों और वैश्विक नेतृत्व के माध्यम से यह साबित किया है कि वह इस संकट से जूझने के लिए न केवल प्रतिबद्ध है बल्कि सक्षम भी है। भारत ने जलवायु संकट से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कई मिशन प्रारंभ किए हैं। राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना के तहत आठ प्रमुख मिशन जैसे राष्ट्रीय सौर मिशन, जल मिशन, ऊर्जा दक्षता मिशन और हरित भारत मिशन का उद्देश्य टिकाऊ विकास के साथ-साथ पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू किया गया “लाइफ” यानी लाइफ स्टाइल फार एन्वायरन्मेंट अभियान एक वैश्विक जन आंदोलन बन चुका है, जो नागरिकों को पर्यावरण के अनुकूल जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करता है। भारत अब विश्व का तीसरा सबसे बड़ा नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादक बन गया है। वर्ष 2024 के अंत तक भारत की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता 180 गीगावॉट से अधिक हो चुकी है। सौर और पवन ऊर्जा में निवेश और नवाचार ने भारत को ऊर्जा आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर किया है। अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन के ज़रिए भारत ने 100 से अधिक देशों को स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में एक साझा मंच प्रदान किया है। यह पहल ऊर्जा न्याय और विकासशील देशों की जलवायु अनुकूलन क्षमता को बढ़ाने का प्रमुख साधन बन रही है। विकासशील देशों के लिए जलवायु परिवर्तन से निपटना वित्तीय चुनौती भी है। फिर भी भारत ने 2023 में 11.8 अरब डॉलर से अधिक की राशि ग्रीन प्रोजेक्ट्स में निवेश की। ग्रीन बॉन्ड्स और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल ने इस दिशा में बड़ी भूमिका निभाई है। 2013 की उत्तराखंड आपदा और 2018 की केरल बाढ़ जैसे अनुभवों से भारत ने अपने आपदा प्रबंधन तंत्र को सुदृढ़ किया है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के तहत पूर्व चेतावनी प्रणाली, राहत और पुनर्वास कार्यों को बेहतर बनाया गया है। तटीय क्षेत्रों में मैंग्रोव पुनर्स्थापन, सामुदायिक प्रशिक्षण और जलवायु लचीलापन योजनाएं हजारों लोगों की जान बचाने में सहायक रही हैं। भारत की 70% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, जहां जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव खेती और जल संसाधनों पर पड़ता है। सरकार ने परंपरागत कृषि विकास योजना, सूक्ष्म सिंचाई योजना और जल जीवन मिशन जैसी योजनाओं के माध्यम से स्थानीय स्तर पर जलवायु अनुकूलन को बढ़ावा दिया है। ग्राम पंचायत स्तर पर जलवायु जोखिम मैपिंग, कृषक प्रशिक्षण, और फसल बीमा योजनाएं किसानों को इस संकट से बचाने में मदद कर रही हैं। भारत ने संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क, सी ओ पी सम्मेलनों, और जी20 जैसे मंचों पर "साझा लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारियाँ" सिद्धांत को आगे बढ़ाया है। सी ओ पी-28 में भारत ने 2070 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित कर यह स्पष्ट किया कि वह दीर्घकालिक समाधान के प्रति गंभीर है। भारत ने साबित किया है कि आर्थिक विकास और पर्यावरणीय संरक्षण साथ-साथ चल सकते हैं। जहां विकसित देश अब भी उत्सर्जन कटौती पर असहमत दिखते हैं, वहीं भारत स्थानीय भागीदारी, नीति स्पष्टता और वैश्विक नेतृत्व के साथ एक नई राह प्रशस्त कर रहा है। अब आवश्यकता इस बात की है कि राज्य सरकारें, स्थानीय निकाय, निजी क्षेत्र और आम नागरिक मिलकर जलवायु संकट से निपटने के इस सफर में सहभागी बनें। भारत न केवल इस परिवर्तन को झेलने के लिए तैयार है, बल्कि यह हरित नवाचार और जलवायु नेतृत्व का भविष्य भी बन सकता है।