भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इसमें कोई दो राय नहीं है कि 15 अगस्त 1947 को भारत ने अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन से आज़ादी पाई। यह स्वतंत्रता सिर्फ एक राजनीतिक घटना नहीं थी, बल्कि करोड़ों भारतीयों के त्याग, संघर्ष और बलिदान का परिणाम थी। आज, 78 वर्षों बाद, हम इस यात्रा को पीछे मुड़कर देखते हैं तो सामने एक मिश्रित तस्वीर आती है—कुछ गर्व से भरे अध्याय और कुछ ऐसे सबक, जिनसे सीख लेकर हमें आगे बढ़ना है। आइये गौर करते हैं इस अहम दौर में हमने क्या पाया: विकास, पहचान और आत्मनिर्भरता का सफर या फिर कुछ और।
भारत ने स्वतंत्रता के साथ ही लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया और इसे निरंतर मजबूत किया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में हमने बार-बार सत्ता परिवर्तन को शांतिपूर्ण तरीके से देखा। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और संवैधानिक संस्थाओं की स्थापना ने देश को एक स्थिर राजनीतिक ढांचा दिया। 1947 में भारत की अर्थव्यवस्था कृषि-प्रधान और कमजोर थी। आज, हम दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। हरित क्रांति ने कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भरता दिलाई, जबकि सूचना-प्रौद्योगिकी, ऑटोमोबाइल, फार्मा और अंतरिक्ष विज्ञान जैसे क्षेत्रों में भारत ने वैश्विक पहचान बनाई। ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्टार्टअप इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसी पहलों ने औद्योगिक व उद्यमशीलता के नए अवसर खोले। इसरो की सफल मंगलयान और चंद्रयान मिशन ने साबित किया कि भारत कम संसाधनों में भी विश्वस्तरीय तकनीकी उपलब्धियां हासिल कर सकता है। परमाणु ऊर्जा, रक्षा अनुसंधान और डिजिटल कनेक्टिविटी के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। स्वतंत्रता के बाद जातिवाद, छुआछूत, बाल विवाह और लैंगिक भेदभाव जैसे मुद्दों पर कानूनी और सामाजिक सुधार हुए। शिक्षा के अधिकार, महिला सशक्तिकरण और आरक्षण नीति ने हाशिए पर खड़े वर्गों को आगे लाने में मदद की। भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन से लेकर जी 20 की अध्यक्षता तक, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संतुलित और प्रभावी भूमिका निभाई। आज, हम जलवायु परिवर्तन, वैश्विक शांति और आर्थिक सहयोग जैसे मुद्दों पर निर्णायक आवाज़ रखते हैं। अब बात करते हैं क्या खोया: चुनौतियाँ और अधूरे सपनों की। हालांकि इस दौर में हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ी है, लेकिन आय असमानता भी इसके साथ साथ बढ़ी है। अमीर और गरीब के बीच की खाई अब भी गहरी है। ग्रामीण इलाकों में रोजगार और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी आज भी एक बड़ी समस्या है। बीते दशकों में क्षेत्रीय, जातीय और धार्मिक आधार पर विभाजन की प्रवृत्ति बढ़ी है। राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति और ध्रुवीकरण ने समाज की एकता पर असर डाला। भ्रष्टाचार स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक रहा है। इससे न केवल विकास कार्यों की गति प्रभावित होती है, बल्कि जनता का प्रशासनिक तंत्र पर भरोसा भी कमजोर पड़ता है। तेज आर्थिक विकास ने पर्यावरण पर दबाव बढ़ाया। वनों की कटाई, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता में कमी जैसे मुद्दे गंभीर स्तर पर पहुंच चुके हैं। हालांकि शिक्षा का प्रसार हुआ, लेकिन सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता और उच्च शिक्षा में अवसरों की समानता अभी भी एक लक्ष्य है। स्वास्थ्य सेवाओं में भी ग्रामीण-शहरी अंतर गहरा है। गर हम सफलताओं और चुनौतियों के संतुलन पर तवज्जो दें तो भारत की 78 साल की यात्रा एक ऐसे राष्ट्र की कहानी है, जिसने कठिन परिस्थितियों से निकलकर वैश्विक मंच पर अपनी जगह बनाई। लेकिन यह सफर अभी पूरा नहीं हुआ। विकास के साथ-साथ सामाजिक एकता, समान अवसर और पर्यावरणीय संतुलन पर भी उतना ही ध्यान देना होगा। आर्थिक प्रगति का लाभ अंतिम पंक्ति तक पहुंचे, इसके लिए नीतियों को और प्रभावी बनाना होगा। कौशल आधारित और डिजिटल शिक्षा पर जोर देकर नई पीढ़ी को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करना होगा। नवीकरणीय ऊर्जा, जल संरक्षण और सतत विकास को प्राथमिकता देनी होगी। विविधताओं में एकता की भावना को और मजबूत करना जरूरी है। तकनीक के जरिए भ्रष्टाचार पर अंकुश और सेवाओं की पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी। 78 वर्षों के इस सफर में भारत ने स्वतंत्रता के मायने केवल राजनीतिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से भी परिभाषित किए हैं। हमने बहुत कुछ हासिल किया है—वैश्विक पहचान, आर्थिक मजबूती, तकनीकी क्षमता—लेकिन अभी भी कई मोर्चों पर काम बाकी है। स्वतंत्रता के इस 79 वें पावन दिवस पर हमें यह याद रखना चाहिए कि आज़ादी सिर्फ अधिकार नहीं, बल्कि जिम्मेदारी भी है—एक ऐसे भारत के निर्माण की, जो न केवल शक्तिशाली और समृद्ध हो, बल्कि न्याय, समानता और सद्भाव के मूल्यों पर भी दृढ़ता से खड़ा हो।