भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इस में कोई दो राय नहीं है कि लोकतंत्र की बुनियाद जनता के विश्वास और जवाबदेही पर टिकी होती है। जब कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री जैसे उच्च पदों पर बैठता है तो वह केवल सत्ता का उपभोग करने के लिए नहीं, बल्कि जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने और संवैधानिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए शपथ लेता है। लेकिन सवाल तब उठता है जब यही नेता भ्रष्टाचार, सत्ता के दुरुपयोग या नैतिक पतन के आरोपों में घिर जाते हैं। क्या ऐसे में उन्हें केवल राजनीतिक समीकरणों के आधार पर पद पर बने रहना चाहिए या फिर एक स्पष्ट संवैधानिक तंत्र के जरिए उन्हें हटाने की व्यवस्था होनी चाहिए? हाल ही में संसद में “पद से हटाने वाला” पेश किया गया 130वाँ संविधान संशोधन विधेयक, 2025 इसी सवाल के इर्द-गिर्द घूमता है। इस विधेयक का मूल उद्देश्य यह है कि यदि कोई प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री भ्रष्टाचार, गंभीर अपराध या संवैधानिक दायित्वों में विफलता का दोषी पाया जाता है और अदालत या जांच एजेंसी द्वारा हिरासत में लिया जाता है, तो उसे पद से हटाने की संवैधानिक प्रक्रिया शुरू हो सके। इस बिल में प्रावधान है कि भ्रष्टाचार या गंभीर अपराध में 30 दिन हिरासत में रहने पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री को पद से हटाया जाएगा। संशोधन अनुच्छेद 75 से जुड़ा है और इसे जेपीसी को भेजा गया है, जहाँ विपक्ष अपनी आपत्तियाँ दर्ज कर सकेगा। यह पहल लोकतंत्र की जवाबदेही को मजबूत करने की दिशा में महत्वपूर्ण मानी जा रही है। लोकतंत्र में जवाबदेही का अर्थ केवल चुनाव के समय वोट हासिल करना नहीं है। भारतीय राजनीति में कई बार देखा गया है कि जब कोई नेता गंभीर आरोपों से घिरता है, तब भी वह राजनीतिक समीकरणों, गठबंधन मजबूरियों और बहुमत के गणित के कारण पद पर बना रहता है। यही कारण है कि लोकतंत्र की आत्मा कमजोर होती है और जनता का विश्वास डगमगाने लगता है। पद से हटाने वाला बिल इस स्थिति में सुधार लाने का प्रयास करता है। यह सच है कि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कई उदाहरण हैं जब उच्च पदों पर बैठे नेताओं पर गंभीर आरोप लगे, लेकिन वे राजनीतिक समीकरणों के कारण पद पर बने रहे। कई मामलों में अदालतों में मुकदमे चलते रहे, लेकिन संवैधानिक पद से हटाने की कोई तत्कालीन व्यवस्था न होने के कारण जनता में असंतोष बढ़ता गया। ऐसे हालात ने यह सवाल उठाया कि आखिर जवाबदेही और पारदर्शिता के बिना लोकतंत्र का क्या अर्थ रह जाएगा? अगर सत्ता पर बैठे लोग ही कानून से ऊपर मान लिए जाएं, तो यह लोकतांत्रिक आदर्शों का मज़ाक होगा। इसी संदर्भ में यह बिल एक संवैधानिक सुधार के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि इस बिल का उद्देश्य लोकतांत्रिक आदर्शों को मजबूत करना है, लेकिन राजनीति में इसका विरोध भी हो रहा है। विपक्ष का तर्क है कि इस बिल का इस्तेमाल सत्ता पक्ष अपने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने के लिए कर सकता है। दूसरी ओर, सत्ता पक्ष का कहना है कि यह बिल लोकतंत्र में नैतिकता और जवाबदेही की नई परंपरा स्थापित करेगा। यदि कोई नेता निर्दोष है तो अदालतें उसे बरी करेंगी और वह फिर से पद संभाल सकेगा। लेकिन जब तक आरोप की गंभीरता बनी रहेगी, तब तक जनता का भरोसा बनाए रखने के लिए उसे सत्ता से दूर रहना चाहिए। आम जनता की नज़र से देखें तो यह बिल लोकतंत्र में एक सकारात्मक बदलाव की संभावना जगाता है। आम नागरिक हमेशा यह चाहता है कि जिस नेता को वह चुनता है, वह ईमानदार, पारदर्शी और जवाबदेह हो। जब भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग की खबरें आती हैं तो जनता का विश्वास टूटता है। ऐसे में यदि कोई संवैधानिक तंत्र नेताओं को जवाबदेह ठहराता है, तो यह लोकतंत्र की जड़ों को और मजबूत करेगा। यह सच है कि लोकतंत्र में पद कोई विशेषाधिकार नहीं, बल्कि जिम्मेदारी है। और यदि कोई उस जिम्मेदारी में विफल होता है तो उसे जनता और संविधान के सामने जवाब देना होगा। अब सवाल यह है कि यह बिल केवल कागजों तक सीमित रहेगा या वास्तव में राजनीति में नई संस्कृति स्थापित करेगा। इसके लिए जरूरी है कि इस बिल में ऐसे प्रावधान हों, जो दुरुपयोग की संभावना को कम करें और पारदर्शिता सुनिश्चित करें। साथ ही, इसके क्रियान्वयन के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष तंत्र बने, ताकि कोई भी राजनीतिक दल इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल न कर सके। लोकतंत्र में जवाबदेही और राजनीति का रिश्ता हमेशा तनावपूर्ण रहा है। जहां जवाबदेही जनता और संविधान के प्रति उत्तरदायित्व की मांग करती है, वहीं राजनीति अक्सर सत्ता की मजबूरियों और गणित में उलझ जाती है। “पद से हटाने वाला बिल” इसी द्वंद्व के बीच लोकतंत्र को और अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने का प्रयास है। यह भी सच है कि अगर यह बिल कानून का रूप लेता है, तो सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि इसकी प्रक्रिया निष्पक्ष, पारदर्शी और दुरुपयोग से मुक्त हो। इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाए जा सकते हैं—स्पष्ट मानदंड तय हों: किन परिस्थितियों में पीएम, सीएम या मंत्री को हटाया जा सकता है, यह साफ-साफ लिखा जाना चाहिए। स्वतंत्र जांच एजेंसी: आरोपों की जांच के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष एजेंसी बनाई जाए। जनप्रतिनिधियों की भूमिका: हटाने की प्रक्रिया में जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को भी उचित हिस्सेदारी दी जाए ताकि यह कदम लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित रहे। न्यायिक निगरानी: न्यायपालिका की देखरेख में प्रक्रिया पूरी की जाए ताकि राजनीतिक दबाव से बचा जा सके।