भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
इस में कोई दो राय नहीं है कि भारत एक ऐसा लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसकी नींव ही नागरिकों की गरिमा और उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा पर रखी गई है। लेकिन हिरासत में होने वाले अमानवीय व्यवहार, अवैध कस्टडी और पुलिस अत्याचार से जुड़े मामलों ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हिरासत का मतलब अब भी न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है या यह सत्ता का दमनकारी औजार बन गई है? हाल के वर्षों में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट्स और मानवाधिकार संगठनों के अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारत में कस्टोडियल डेथ यानी हिरासत में मौतों के मामले लगातार सामने आ रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि कई बार पीड़ित व्यक्ति को बिना उचित कारण या प्रक्रिया के ही लंबे समय तक हिरासत में रखा जाता है, जिससे संविधान द्वारा प्रदत्त ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ का सीधा उल्लंघन होता है। पुलिस व्यवस्था को सुधारने और हिरासत में मानवीय व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसलों में बार-बार दिशा-निर्देश जारी किए हैं। 1996 के डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य केस में कोर्ट ने कस्टडी के दौरान अधिकारों की रक्षा के लिए कई महत्वपूर्ण दिशानिर्देश दिए, जैसे- गिरफ्तारी के समय परिजन को सूचना देना, मेडिकल जांच कराना और केस डायरी में सभी गतिविधियों का रिकॉर्ड रखना। इसके बावजूद कई राज्यों में पुलिस इन मानकों का पालन करने में असफल रहती है। दरअसल, हिरासत की मौजूदा व्यवस्था दो बड़े खतरों को जन्म देती है – पहला, यह पुलिस के लिए व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देने का मंच बन जाता है; दूसरा, यह नागरिकों के मन में पुलिस के प्रति अविश्वास और डर को बढ़ाता है। और जब न्यायिक प्रक्रिया पर ही अविश्वास होने लगे, तो लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर पड़ने लगती है। हिरासत के दौरान पुलिस द्वारा हिंसा के मामलों की बड़ी वजह हमारे सिस्टम में व्याप्त “स्वीकारोक्ति-आधारित जांच पद्धति” है। पुलिस कई बार तथ्यों और सबूतों के वैज्ञानिक विश्लेषण के बजाय आरोपी से जुर्म कबूल करवाने के लिए दबाव का रास्ता अपनाती है। यह आदत ब्रिटिश काल से चली आ रही उपनिवेशी सोच का हिस्सा है, जो अब भी व्यवस्था में जड़ें जमाए हुए है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 साफ तौर पर कहता है कि “किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से तभी वंचित किया जा सकता है, जब वह कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार हो।” इसका अर्थ यह है कि हिरासत में किसी भी व्यक्ति के साथ अमानवीय व्यवहार या यातना संविधान के खिलाफ है। लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि पुलिस सुधार की कोशिशें दशकों से फाइलों में दबी पड़ी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में प्रसाद समिति की सिफारिशों को लागू करने के निर्देश दिए थे, जिनका मकसद पुलिस को राजनीतिक दबाव से मुक्त करना और उसकी जवाबदेही तय करना था। पर इन सुधारों का जमीन पर असर नाममात्र ही देखने को मिला है। वर्तमान समय में जरूरी है कि हिरासत की प्रक्रिया में तकनीक और पारदर्शिता को शामिल किया जाए। उदाहरण के लिए, सभी थानों और पूछताछ कक्षों में सी सी टी वी कैमरे अनिवार्य किए जाएं और उनकी फुटेज संरक्षित रखी जाए। गिरफ्तारी और हिरासत से जुड़ी जानकारी ऑनलाइन सार्वजनिक पोर्टल पर डालने का सिस्टम बने, ताकि परिजन और वकील आसानी से ट्रैक कर सकें। साथ ही, पुलिस को संवेदनशील और मानवाधिकार-प्रशिक्षित बनाने के लिए रेगुलर ट्रेनिंग जरूरी है। पुलिस बल में शामिल हर अधिकारी को यह समझना चाहिए कि हिरासत का मतलब न्याय की प्रक्रिया में मदद करना है, न कि शक्ति का गलत इस्तेमाल। यह तभी संभव होगा जब सरकार और समाज दोनों, पुलिसिंग को पेशेवर बनाने और मानवीय गरिमा का सम्मान करने के प्रति गंभीर होंगे। आज जब भारत लोकतंत्र के साढे सात दशक पूरे कर चुका है और आगे बढ़ रहा है, तब हिरासत में होने वाले अमानवीय व्यवहार को जड़ से खत्म करने का समय आ गया है।