भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां भारत के पहाड़ी राज्यों, विशेष रूप से उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे हिमालयी क्षेत्रों में बादल फटने की घटनाएं अब सामान्य होती जा रही हैं। इन घटनाओं से होने वाली जान-माल की क्षति वर्ष दर वर्ष बढ़ती जा रही है। बावजूद इसके, यह सवाल अब भी खड़ा है कि क्या हमने इन आपदाओं से कोई सबक सीखा है? 2025 की उत्तरकाशी की धराली त्रासदी हो या 2013 की केदारनाथ आपदा, हर बार एक जैसी तस्वीरें सामने आती हैं—लोगों की चीख-पुकार, बहते मकान, टूटी सड़कें, और प्रशासन की देर से शुरू हुई राहत कार्यवाही। पर इन घटनाओं की पुनरावृत्ति यह बताती है कि हम न तो तैयार हैं, और न ही पर्याप्त गंभीर। सबसे पहले आइये समझते हैं कि आखिर क्या होता है "बादल फटना"? बादल फटना एक तीव्र वर्षा की प्रक्रिया है, जिसमें बहुत ही सीमित क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा कुछ ही घंटों या मिनटों में होती है। जब वातावरण में अधिक नमी और ऊंचाई पर ठंडी हवा टकराती है, तो यह घटना होती है। इस समय भारी मात्रा में पानी एक साथ गिरता है, जिससे नदियों में अचानक बाढ़ आ जाती है और ज़मीन खिसकने लगती है। भारत में बादल फटने की कई घटनाएं हुई हैं, जिनमें बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई और इन्फ्रास्ट्रक्चर तबाह हो गया। आइए कुछ प्रमुख घटनाओं पर नज़र डालते हैं: जून 2013: केदारनाथ (उत्तराखंड) में सबसे भयावह क्लाउडबर्स्ट हुआ। हज़ारों लोगों की मौत हुई, हजारों लोग हुए लापता। चारधाम यात्रा बुरी तरह प्रभावित रही। जुलाई 2021: धारचूला (पिथौरागढ़, उत्तराखंड) में लगातार बारिश और बादल फटने से कई घर बह गए। सड़कें टूट गईं, बिजली और मोबाइल नेटवर्क ठप। सेना को राहत कार्यों में लगाया गया। अगस्त 2021: हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में बादल फटने से भूस्खलन की घटनाएं बढ़ीं। यात्रियों से भरी बस पर भारी चट्टान गिर गई। दर्जनों लोगों की जान गई। जुलाई 2022: अमरनाथ यात्रा के दौरान, जम्मू-कश्मीर में बादल फटने से गुफा क्षेत्र में अचानक बाढ़ आई। 15 से अधिक श्रद्धालु मारे गए, कई घायल।यात्रा को स्थगित करना पड़ा। अगस्त 2023: मंडी और कुल्लू (हिमाचल प्रदेश) में लगातार बारिश के बीच बादल फटने की घटनाएं सामने आईं। सैकड़ों मकान नष्ट हुए।भूस्खलन से हाईवे बंद। अगस्त 2025: धराली (उत्तरकाशी, उत्तराखंड) ताजा घटना जिसमें दर्जनों घर बह गए। सड़क संपर्क पूरी तरह ठप। राहत कार्य जारी लेकिन दुर्गम भूगोल बाधा बनकर सामने आया। अब बात आती है कि आखिर क्यों नहीं सीख पा रहे हम सबक? इन घटनाओं की आवृत्ति यह दिखाती है कि ये महज़ प्राकृतिक घटनाएं नहीं हैं, बल्कि जलवायु परिवर्तन, बेतरतीब शहरीकरण और प्रशासनिक लापरवाही का घातक मिश्रण हैं। चेतावनी प्रणाली की कमी, अवैज्ञानिक निर्माण कार्य,जंगलों की कटाई, स्थानीय सहभागिता की कमी आदि कई कारण हैं जो इस सबक को समझने ही नहीं देते। अब बात करते हैं इसके समाधान की। क्लाउडबर्स्ट चेतावनी सिस्टम विकसित करें: रडार तकनीक और सैटेलाइट डेटा का स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल हो। सस्टेनेबल इंफ्रास्ट्रक्चर: पहाड़ों में निर्माण कार्य पूरी तरह भूगर्भीय अध्ययन के आधार पर हों। आपदा प्रशिक्षण: गांव स्तर पर लोगों को राहत, बचाव और चेतावनी प्रणाली से जोड़ा जाए। पर्यावरणीय नियमों का सख्ती से पालन: निर्माण परियोजनाओं में ई आई ए रिपोर्ट को अनिवार्य और पारदर्शी बनाया जाए। राज्य और केंद्र सरकार की संयुक्त योजना: दीर्घकालिक नीतियों से पहाड़ी क्षेत्र को आपदा से सुरक्षित किया जाए। अंत में हम कह सकते हैं कि हर साल पहाड़ों में बादल फटने की घटनाएं केवल मौसम की मार नहीं, बल्कि हमारी नीतिगत असफलताओं का नतीजा हैं। जितना दोष प्रकृति का है, उतना ही हमारी उदासीनता का भी। यह समय है जब केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर ठोस रणनीति बनानी होगी, नहीं तो हर साल यह चक्र यूं ही चलता रहेगा—और हर बार तबाही के साथ यह सवाल उठेगा कि क्या हमने अब भी कोई सबक नहीं सीखा?