भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
भारत का चुनाव आयोग लोकतंत्र की रीढ़ माना जाता है। देश के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव इसी संस्था की विश्वसनीयता पर निर्भर करते हैं। हाल ही में मुख्य चुनाव आयुक्त को लेकर विपक्षी दलों द्वारा उठाए गए सवालों और महाभियोग की मांग ने एक बार फिर बहस छेड़ दी है कि आखिर क्यों मुख्य चुनाव आयुक्त संविधान के विशेष संरक्षण के दायरे में आते हैं और क्यों विपक्ष उन्हें सीधे हटाने की स्थिति में नहीं है। आइये समझते हैं चुनाव आयोग की संवैधानिक स्थिति के बारे में। भारत का चुनाव आयोग अनुच्छेद 324 के तहत गठित एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है। इसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो अन्य चुनाव आयुक्त शामिल होते हैं। चुनाव आयोग की भूमिका केवल लोकसभा और विधानसभा चुनावों तक सीमित नहीं है, बल्कि राज्यसभा, विधान परिषद और राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनाव भी इसके अधिकार क्षेत्र में आते हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त का पद इतना महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि वह न केवल आयोग की कार्यप्रणाली का नेतृत्व करता है बल्कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की गारंटी देने वाले सभी संवैधानिक प्रावधानों का संरक्षक भी होता है। अब समझते हैं हटाने की प्रक्रिया और ‘संवैधानिक कवच’के बारे में। अनुच्छेद 324 और संबंधित प्रावधानों के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त को केवल उसी प्रक्रिया के तहत हटाया जा सकता है, जैसी प्रक्रिया उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए अपनाई जाती है। यानी इसके लिए संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाना पड़ता है। महाभियोग के लिए लोकसभा और राज्यसभा – दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। इसका मतलब यह है कि विपक्षी दल, भले ही वे एकजुट होकर प्रस्ताव पेश करें, लेकिन उनके पास यदि पर्याप्त बहुमत नहीं है तो वे मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने में सफल नहीं हो सकते। यही कारण है कि इसे ‘संवैधानिक कवच’ कहा जाता है। गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से विपक्षी दल यह आरोप लगा रहे हैं कि चुनाव आयोग सरकार के दबाव में काम कर रहा है। खासकर 2024 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान आयोग के निर्णयों पर सवाल उठे। विपक्ष का कहना है कि मुख्य चुनाव आयुक्त को जवाबदेह ठहराने का रास्ता बेहद कठिन है और यही वजह है कि उन्हें संविधान का "कवच" प्राप्त है। विपक्षी नेताओं का कहना है कि इस प्रक्रिया में संशोधन होना चाहिए ताकि संसद में साधारण बहुमत से भी इस पर विचार संभव हो सके। जबकि दूसरी ओर विशेषज्ञों की राय है कि चुनाव आयोग को विशेष संरक्षण इसलिए दिया गया है ताकि सरकार या विपक्ष – कोई भी संस्था इस पर दबाव न बना सके। अगर मुख्य चुनाव आयुक्त को साधारण बहुमत से हटाया जा सके तो हर चुनाव में यह खतरा रहेगा कि जो भी पार्टी सत्ता में है, वह आयोग को अपने हितों के मुताबिक ढाल सकती है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों का भी कहना है कि यह ‘कवच’ लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है। इससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता बनी रहती है और कोई भी राजनीतिक दल इस संस्था को कमजोर करने की स्थिति में नहीं होता। याद रहे संसद में यह मुद्दा कई बार उठ चुका है कि क्या मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया को आसान बनाया जाए या नहीं। कुछ सांसदों का मानना है कि मौजूदा प्रणाली आयोग की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए जरूरी है। वहीं विपक्ष का तर्क है कि इतनी सख्त प्रक्रिया आयोग को पूरी तरह जवाबदेही से मुक्त कर देती है, जो लोकतंत्र के लिए नुकसानदायक हो सकता है। जनता के बीच भी यह विषय चर्चा का केंद्र बना हुआ है। एक वर्ग का मानना है कि अगर चुनाव आयोग पर कोई सवाल उठता है तो उस पर तत्काल जांच होनी चाहिए और आवश्यक होने पर मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने का रास्ता खुला रहना चाहिए। लेकिन दूसरा पक्ष कहता है कि यह सुरक्षा इसलिए दी गई है ताकि आयोग राजनीतिक दबाव से बचा रह सके। अब बात आती है संवैधानिक संस्थाओं पर भरोसे की चुनौती की। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता बेहद अहम है। पिछले कुछ वर्षों में सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जैसी संस्थाओं की निष्पक्षता को लेकर बार-बार सवाल उठे हैं। ऐसे में चुनाव आयोग को मिला ‘संवैधानिक कवच’ एक सुरक्षा दीवार के रूप में सामने आता है। हालांकि, विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि केवल कानूनी सुरक्षा ही पर्याप्त नहीं है। आयोग के भीतर पारदर्शिता और जिम्मेदारी की भावना भी उतनी ही जरूरी है। अगर संस्था खुद अपनी साख बनाए रखे तो विवाद की स्थिति ही पैदा नहीं होगी। मौजूदा हालात में इस पूरे विवाद ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा किया है कि क्या संविधान द्वारा प्रदत्त यह सुरक्षा अटूट रहनी चाहिए या इसमें समयानुसार संशोधन होना चाहिए। फिलहाल विपक्ष महाभियोग की राह से मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनौती नहीं दे सकता, क्योंकि उसके पास आवश्यक बहुमत नहीं है।लेकिन आने वाले समय में यदि इस मुद्दे पर व्यापक राजनीतिक सहमति बनती है तो संसद में संशोधन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। तब तक चुनाव आयोग अपनी संवैधानिक शक्ति और स्वतंत्रता के साथ देश के लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करने की जिम्मेदारी निभाता रहेगा।