भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हाल ही में हुआ रक्षा समझौता केवल दो देशों के द्विपक्षीय संबंधों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके दूरगामी असर भारत और पूरे वैश्विक शक्ति समीकरण पर पड़ने लाजमी हैं। इस डील ने न सिर्फ नई भू-राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया है, बल्कि भारत जैसे देशों के लिए रणनीतिक और सुरक्षा से जुड़ी गंभीर चुनौतियाँ भी खड़ी की हैं। आइये बात करते हैं पाकिस्तान-सऊदी संबंधों की पृष्ठभूमि की। पाकिस्तान और सऊदी अरब के रिश्ते दशकों से घनिष्ठ रहे हैं। तेल और वित्तीय सहयोग के अलावा धार्मिक और सामरिक दृष्टिकोण से दोनों देश एक-दूसरे के साझेदार रहे हैं। पाकिस्तान में आर्थिक संकट की घड़ी में सऊदी अरब हमेशा मददगार रहा है। वहीं, रियाद भी पाकिस्तान को अपने लिए पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया की कड़ी मानता है। लेकिन इस बार का डिफेंस समझौता केवल कूटनीतिक सहयोग से आगे बढ़कर सैन्य साझेदारी की दिशा में ठोस कदम के रूप में देखा जा रहा है। अगर हम इस डील की अहमियत पर गौर करें तो खबरों के अनुसार, इस रक्षा समझौते में पाकिस्तान और सऊदी अरब ने मिलिट्री ट्रेनिंग, हथियारों की सप्लाई, जॉइंट एक्सरसाइज और सुरक्षा ढांचे में सहयोग पर सहमति जताई है। यह समझौता ऐसे समय में हुआ है जब मध्य पूर्व में ईरान और सऊदी अरब के बीच कूटनीतिक संबंध सुधरने की कोशिशें चल रही हैं, लेकिन रियाद अपनी सुरक्षा रणनीति को और मजबूत करना चाहता है। सऊदी अरब लंबे समय से अमेरिकी हथियारों पर निर्भर रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में वह रूस, चीन और अब पाकिस्तान जैसे देशों से भी रक्षा सहयोग बढ़ा रहा है। पाकिस्तान के पास न्यूक्लियर क्षमता और बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित सैन्य बल हैं। ऐसे में सऊदी अरब के लिए पाकिस्तान एक भरोसेमंद सुरक्षा साझेदार साबित हो सकता है। दूसरी ओर अगर हम इस समझौते से भारत के लिए चुनौती की बात करें तो भारत और सऊदी अरब के संबंध बीते कुछ वर्षों में काफी बेहतर हुए हैं। ऊर्जा सहयोग, प्रवासी भारतीयों की भूमिका और व्यापारिक रिश्तों ने इन संबंधों को मजबूत बनाया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के बीच हुए समझौते इसका प्रमाण हैं। लेकिन पाकिस्तान के साथ इस तरह का रक्षा समझौता भारत के लिए एक नई चिंता खड़ी करता है। पाकिस्तान लगातार भारत विरोधी नीतियों और आतंकवाद को बढ़ावा देने के आरोपों से घिरा रहा है। यदि सऊदी अरब उसकी रक्षा क्षमताओं को और मजबूत करता है, तो यह भारत की सुरक्षा नीति पर दबाव डाल सकता है। खासकर जम्मू-कश्मीर और सीमा पर तनाव की स्थिति में यह सहयोग भारत के लिए रणनीतिक खतरा बन सकता है। अगर हम इसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य से समझें तो यह डील सिर्फ भारत-पाकिस्तान संबंधों तक सीमित नहीं है। अमेरिका, रूस और चीन भी इस नए समीकरण को लेकर सतर्क हैं। अमेरिका सऊदी अरब का पारंपरिक सुरक्षा साझेदार रहा है, लेकिन वह पाकिस्तान के साथ उसके बढ़ते संबंधों को लेकर चिंतित हो सकता है। दूसरी ओर, चीन पहले से ही पाकिस्तान का रणनीतिक साझेदार है और सऊदी अरब के साथ उसके संबंध भी गहरे हो रहे हैं। यदि यह त्रिकोणीय समीकरण (चीन-पाकिस्तान-सऊदी अरब) और मजबूत होता है, तो पश्चिम एशिया से लेकर दक्षिण एशिया तक शक्ति संतुलन में बड़ा बदलाव आ सकता है। भारत के लिए यह स्थिति और भी कठिन होगी क्योंकि उसे एक साथ चीन और पाकिस्तान दोनों से निपटना पड़ता है। यह भी सच है कि सऊदी अरब इस डील को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम के रूप में देख रहा है। यमन युद्ध, ईरान से प्रतिस्पर्धा और क्षेत्रीय अस्थिरता ने उसे मजबूर किया है कि वह बहुस्तरीय सुरक्षा सहयोग बनाए। पाकिस्तान के साथ डील उसे सस्ते और प्रशिक्षित सैन्य संसाधन उपलब्ध कराएगी। इसके अलावा, पाकिस्तान से रिश्ते मजबूत कर सऊदी अरब दक्षिण एशिया में अपनी मौजूदगी को और प्रभावी बना सकता है। यह कदम उसे क्षेत्रीय राजनीति में नई ताकत देगा। भारत के सामने अब चुनौती है कि वह सऊदी अरब के साथ अपने संबंधों को और मजबूत बनाए और पाकिस्तान के साथ बढ़ते सहयोग के बीच संतुलन साधे। भारत को ऊर्जा, निवेश और प्रवासी भारतीयों के मुद्दे पर सऊदी अरब के साथ संबंधों की गहराई बनाए रखनी होगी। साथ ही, भारत को अमेरिका, यूरोप और खाड़ी देशों के साथ कूटनीतिक तालमेल और बढ़ाना होगा ताकि पाकिस्तान को मिलने वाले सामरिक लाभ का मुकाबला किया जा सके। भारत को यह भी देखना होगा कि इस डील से आतंकवाद को अप्रत्यक्ष सहयोग न मिले। अंत में कह सकते हैं कि सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुआ रक्षा समझौता केवल एक द्विपक्षीय डील नहीं है, बल्कि यह वैश्विक राजनीति में नए समीकरणों का संकेत देता है। भारत के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि यह उसकी सुरक्षा, सामरिक हितों और कूटनीतिक संतुलन को प्रभावित कर सकता है। आने वाले समय में यह देखना अहम होगा कि सऊदी अरब इस समझौते को किस हद तक आगे ले जाता है और पाकिस्तान किस तरह इसे अपने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय एजेंडे में इस्तेमाल करता है। भारत को सतर्क रहकर अपने रणनीतिक हितों की रक्षा करनी होगी।