भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां, इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय लोकतंत्र का मूल आधार निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव प्रणाली है। लेकिन हाल के वर्षों में जारी रिपोर्टें और राजनीतिक विशेषज्ञों के विश्लेषण यह साफ़ कर चुके हैं कि मतदाता सूची में लगातार पाई जाने वाली असमानताएँ और विसंगतियाँ लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर गहरे सवाल खड़े कर रही हैं। इन खामियों के कारण न केवल चुनावों की पारदर्शिता प्रभावित होती है, बल्कि मतगणना और मतदान प्रतिशत के अनुमान भी असंतुलित हो जाते हैं। भारत जैसा विशाल और विविधतापूर्ण देश होने के कारण मतदाता सूची का अद्यतन हमेशा से कठिन रहा है। गाँवों और कस्बों से लेकर महानगरों तक, हर क्षेत्र की अपनी अलग समस्याएँ हैं। इनमें से कुछ बेहद सामान्य लेकिन गंभीर खामियाँ हैं: दस्तावेज संबंधी कमियाँ – लाखों नागरिकों के पास पर्याप्त या सटीक पहचान और पते से जुड़े प्रमाणपत्र नहीं होते। इसका सीधा असर मतदाता सूची पर पड़ता है और उनके नाम शामिल नहीं हो पाते। डुप्लीकेट प्रविष्टियाँ – एक ही व्यक्ति का नाम एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में दर्ज हो जाना आम बात है। यह त्रुटि चुनावी गणना में भ्रम पैदा करती है और मतदाता संख्या के अनुमान को अविश्वसनीय बना देती है। राजनीतिक हस्तक्षेप – कई बार स्थानीय स्तर पर दबाव डालकर नाम जोड़े या हटाए जाते हैं। इससे मतदाता सूची की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। प्रवासी और शहरी मतदाता – महानगरों में प्रवासी मजदूरों और किरायेदारों के नाम अक्सर सूची से गायब मिलते हैं। मतदान दिवस पर जब उन्हें नाम नदारद मिलता है, तो उनका लोकतांत्रिक अधिकार बाधित होता है। इन सभी कारणों से नागरिकों का भरोसा चुनाव प्रणाली पर डगमगाने लगता है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मतदाता सूची में असमानताएँ केवल प्रशासनिक खामी नहीं बल्कि लोकतांत्रिक कमजोरी हैं। यह प्रवृत्ति मतदान के अनुमान में नीचे की ओर झुकाव पैदा करती है, जिससे राजनीतिक गणनाएँ प्रभावित होती हैं। यही कारण है कि सूची का नियमित और गहन पुनरीक्षण आवश्यक है। कागज़ी औपचारिकताओं से यह काम पूरा नहीं होगा। निर्वाचन आयोग को आधुनिक तकनीक और सख़्त निगरानी तंत्र का सहारा लेना ही होगा। मतदाता सूची की शुद्धता सुनिश्चित करने के लिये विशेषज्ञ कुछ ठोस सुझाव सामने रखते हैं— सरल सत्यापन प्रणाली – हर नागरिक को अपने नाम की स्थिति ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों माध्यमों से आसानी से जांचने की सुविधा मिले। मोबाइल एप्स और डिजिटल पोर्टल इसके लिये कारगर साधन हो सकते हैं। बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण – आधार और अन्य बायोमेट्रिक साधनों का इस्तेमाल करके पहचान की पुष्टि की जा सकती है। इससे डुप्लीकेट नामों पर रोक लगेगी और फर्जी वोटिंग की गुंजाइश घटेगी। सार्वजनिक जागरूकता अभियान – मतदाता सूची के अद्यतन के बारे में आम नागरिकों में जागरूकता फैलाना ज़रूरी है। समय-समय पर अभियान चलाकर लोगों को अपने नाम की पुष्टि और सुधार के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये। विश्वसनीय सर प्रक्रिया – सर को चरणबद्ध तरीके से लागू कर, निर्वाचन आयोग सूची में त्रुटियों को न्यूनतम कर सकता है। इससे हर पात्र नागरिक का नाम दर्ज हो सकेगा और अनियमितताओं पर नियंत्रण मिलेगा। यदि मतदाता सूची सटीक नहीं होगी, तो चुनाव परिणामों की विश्वसनीयता पर स्वाभाविक रूप से संदेह होगा। यह केवल एक प्रशासनिक चुनौती नहीं बल्कि लोकतांत्रिक विश्वास का संकट है। नागरिकों को भरोसा होना चाहिये कि उनका वोट सही जगह गिना जाएगा और उनकी भागीदारी प्रभावी होगी। मतदाता सूची की पारदर्शिता सुनिश्चित करना केवल निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी नहीं है। राजनीतिक दलों और नागरिक समाज को भी इसमें सक्रिय भूमिका निभानी होगी। दलों को अपने हित साधने के बजाय लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मजबूती के लिये काम करना चाहिये। वहीं, नागरिकों को भी समय रहते अपने नाम और विवरण की पुष्टि करनी चाहिये। दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी मतदाता सूची को लेकर चुनौतियाँ रही हैं। अमेरिका में मतदाता पंजीकरण की जिम्मेदारी मुख्य रूप से नागरिकों पर होती है। दूसरी ओर यूरोपीय देशों में यह कार्य सरकारें स्वतः करती हैं। भारत जैसे विविधता वाले देश के लिये मिश्रित मॉडल सबसे उपयुक्त साबित हो सकता है, जिसमें नागरिकों की सक्रिय भागीदारी और सरकारी पारदर्शिता दोनों सुनिश्चित हों। डिजिटल युग में तकनीक इस समस्या का समाधान बन सकती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मशीन लर्निंग और ब्लॉकचेन जैसी तकनीकों का इस्तेमाल करके मतदाता सूची को और अधिक सुरक्षित और त्रुटिरहित बनाया जा सकता है। इससे न केवल डुप्लीकेट नामों की पहचान होगी, बल्कि डेटा में छेड़छाड़ की संभावना भी घटेगी। अंत कह सकते हैं कि भारतीय लोकतंत्र का भविष्य मतदाता सूची की शुद्धता और पारदर्शिता पर निर्भर करता है। यदि सूची त्रुटिपूर्ण रही, तो चाहे मतदान प्रक्रिया कितनी भी आधुनिक क्यों न हो, चुनाव परिणामों पर संदेह बना रहेगा। निर्वाचन आयोग के पास इस चुनौती से निपटने के लिये पर्याप्त अधिकार और संसाधन हैं। जरूरत केवल इन्हें सही दिशा में इस्तेमाल करने की है।नियमित सत्यापन, बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण, जागरूकता अभियान और विश्वसनीय SIR प्रक्रिया वही रास्ते हैं, जिनसे भारत अपने लोकतंत्र की नींव को और मजबूत कर सकता है।लोकतंत्र की सफलता केवल चुनाव कराने से नहीं मापी जाती, बल्कि इससे तय होती है कि हर नागरिक को बराबरी का मतदान अधिकार मिला या नहीं। यही कारण है कि मतदाता सूची में असमानताओं को दूर करना इस दिशा में पहला और सबसे अहम कदम है।