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संपादकीय

The unrest on the streets of Ladakh, demanding jobs, land, identity and full statehood, requires the immediate attention of the central government: नौकरी, ज़मीन, पहचान और पूर्ण राज्य का दर्जा मांगते लद्दाख की सड़कों के उबाल पर केंद्र सरकार को तुरंत ध्यान देने की जरूरत

September 28, 2025 09:04 PM

 भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़ 

जी हां इस में कोई दो राय नहीं है कि मौजूदा हालात में लद्दाख एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। वर्ष 2019 में अनुच्छेद 370 और 35ए हटाए जाने के बाद जब इसे केन्द्रशासित प्रदेश का दर्ज़ा मिला, तब बहुत से लोगों को उम्मीद थी कि दिल्ली के सीधे शासन से विकास की गति तेज होगी। परंतु बीते छह वर्षों में यह साफ हो गया है कि केवल प्रशासनिक ढांचा बदलने से क्षेत्रीय अस्मिता और स्थानीय आकांक्षाओं को संतोष नहीं मिलता। सितंबर 2025 में लेह की सड़कों पर उमड़ी भीड़, प्रदर्शन और दुखद हिंसा इस असंतोष की पराकाष्ठा का प्रतीक है। गौरतलब है कि लेह और करगिल दोनों ही ज़िलों में स्थानीय संगठनों ने कुछ बुनियादी मांगें सामने रखी हैं। इनमें प्रमुख हैं— लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिलना चाहिए। संविधान की छठी अनुसूची में इसे शामिल किया जाए ताकि ज़मीन, संसाधन और सांस्कृतिक अधिकारों की विशेष सुरक्षा हो। नौकरी और शिक्षा में स्थानीयों के लिए आरक्षण सुनिश्चित किया जाए। डोमिसाइल नीति को कानूनी रूप से लागू किया जाए ताकि बाहरी लोगों का अनियंत्रित प्रभाव न बढ़े। सरकार ने 2025 में 15 साल के निवास को डोमिसाइल मानने और 95% स्थानीय नौकरी आरक्षण का प्रस्ताव रखा है। यह एक सकारात्मक कदम है, परन्तु लोगों को लगता है कि यह स्थायी समाधान नहीं है। अब बात करते हैं केंद्र सरकार के दृष्टिकोण और चुनौतियाँ कीं। दूसरी ओर केंद्र सरकार का तर्क है कि लद्दाख संवेदनशील सीमा क्षेत्र है, इसलिए यहाँ प्रशासनिक नियंत्रण और राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है। इसी कारण इसे पूर्ण राज्य बनाने पर हिचकिचाहट है। इसके अलावा छठी अनुसूची लागू करने से संसदीय और संवैधानिक संशोधन की ज़रूरत होगी, जो राजनीतिक दृष्टि से आसान नहीं है। लेकिन केंद्र की यह सतर्कता स्थानीयों के लिए ‘अनदेखी’ का प्रतीक बनती जा रही है। जब दिल्ली से दूर किसी सीमांत क्षेत्र की जनता अपने ही भविष्य पर अधिकार न होने का अहसास करती है, तो असंतोष होना स्वाभाविक प्रतीत होता है। अब बात करते हैं सितंबर 2025 में हुए हिंसक उग्र प्रदर्शन की। सितंबर 2025 में हुए प्रदर्शनों में चार लोगों की मौत और सैकड़ों के घायल होने की घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया। एक ओर प्रशासन कर्फ्यू और इंटरनेट बंद कर हालात को काबू में लाने की कोशिश करता रहा, तो दूसरी ओर मानवाधिकार संगठनों ने पुलिस बल के इस्तेमाल पर सवाल उठाए। उक्त स्थिति से एसा लगता है कि संवाद की कमी गहरी होती जा रही है जो बिलकुल नहीं होनी चाहिए। यह भी ध्यान देने की बात है कि लद्दाख का भूगोल, जलवायु और जनसंख्या बेहद खास है। यहाँ का हर आंदोलन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नज़र में आता है क्योंकि यह क्षेत्र चीन और पाकिस्तान की सीमाओं से जुड़ा है। इस कारण सरकार के लिए सुरक्षा और स्थानीय अधिकारों के बीच संतुलन साधना बड़ी चुनौती है। लद्दाख की स्थिति को केवल प्रशासनिक आदेशों से नहीं संभाला जा सकता। इसके लिए तीन स्तरों पर काम होना बहुत ज़रूरी है— तत्काल संवाद और विश्वास बहाली जरूरी है। केंद्र और स्थानीय नेतृत्व के बीच निष्पक्ष और समयबद्ध वार्ता हो। हाल की हिंसा की स्वतंत्र जांच कराई जाए और दोषियों पर कार्रवाई हो। पीड़ित परिवारों को न्याय और मुआवज़ा दिया जाए।अंतरिम समाधान पर गौर करें तो डोमिसाइल नीति और स्थानीय आरक्षण को कानूनी मजबूती दी जाए। भूमि उपयोग और पर्यटन नीतियों में पारदर्शिता सुनिश्चित हो। पर्यावरण संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए क्योंकि यही लद्दाख की असली धरोहर है। दीर्घकालिक विकल्पकी बात करें तो राज्य का दर्ज़ा देने या छठी अनुसूची में शामिल करने जैसे संवैधानिक विकल्पों पर संसदीय बहस और विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट अनिवार्य की जाए। यदि तुरंत राज्य का दर्ज़ा देना संभव न हो तो “विशेष क्षेत्र परिषद” जैसे वैकल्पिक ढाँचे पर विचार किया जा सकता है, जिसमें संसाधनों और बजट पर स्थानीय प्रतिनिधियों का नियंत्रण हो। यह भी सच है कि मौजूदा हालात के मद्देनजर संतुलित दृष्टिकोण की खासी ज़रूरत है। सवाल यह नहीं है कि लद्दाख को क्या दिया जाए, बल्कि यह है कि उसके लोगों को यह विश्वास कब मिलेगा कि उनकी पहचान और अधिकार सुरक्षित हैं। सरकार को यह समझना होगा कि सीमांत क्षेत्र में लोकतांत्रिक असहमति को दबाने से सुरक्षा मज़बूत नहीं होती, बल्कि असंतोष गहरा होता है। वहीं स्थानीय नेतृत्व को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि आंदोलन अहिंसक और लोकतांत्रिक तरीकों से ही आगे बढ़े, ताकि उनकी माँगों की वैधता बनी रहे। अंत में कह सकत हैं कि लद्दाख की जनता की आवाज़ अब केवल भूगोल या सीमाओं का प्रश्न नहीं रही; यह भारत के लोकतंत्र की कसौटी भी है। राज्य का दर्ज़ा हो या छठी अनुसूची का संरक्षण, कोई भी समाधान तभी टिकाऊ होगा जब उसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी और विश्वास शामिल हो। केंद्र सरकार को चाहिए कि वह जल्द ही इस दिशा में ठोस पहल करे, वरना यह असंतोष और भी गहरा सकता है।

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