भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
भारत में डिजिटल युग ने सूचनाओं की पहुँच को जितना आसान बनाया है, उतना ही गलत सूचनाओं और फेक न्यूज़ के खतरे को भी गहरा कर दिया है। हाल ही में संसद की संचार और सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी स्थायी समिति ने इस समस्या को गंभीर मानते हुए कई ठोस सिफारिशें रखी हैं। समिति का कहना है कि फेक न्यूज़ न केवल लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करती है, बल्कि यह सार्वजनिक व्यवस्था और नागरिकों के भरोसे के लिये भी चुनौती बन चुकी है। अगर हम समिति की प्रमुख सिफारिशों की बात करें तो सबसे अहम सुझाव यह है कि हर मीडिया संगठन को एक मजबूत तथ्य-जाँच तंत्र और संपादकीय सामग्री पर निगरानी के लिये आंतरिक लोकपाल रखना होगा। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि खबरें तथ्यों पर आधारित हों और किसी भी स्तर पर भ्रम फैलाने वाली सामग्री प्रकाशित न हो। इसके अलावा समिति ने कानूनों में संशोधन की वकालत की है, ताकि जुर्माने की राशि बढ़ाई जा सके और मीडिया संस्थानों को उनकी सामग्री के लिये सीधे जवाबदेह ठहराया जा सके। इस दौरान 'फेक न्यूज़' की स्पष्ट परिभाषा तय करने की ज़रूरत पर भी बल दिया गया है, ताकि इसे व्यंग्य, विचार या आलोचना जैसी अभिव्यक्ति से अलग किया जा सके। समिति ने भारतीय प्रेस परिषद को और अधिक सशक्त बनाने, स्वतंत्र निगरानी निकाय व शिकायत पोर्टल की स्थापना, तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित सामग्री पर लाइसेंसिंग और लेबलिंग को अनिवार्य करने का सुझाव दिया है। इससे न केवल पारदर्शिता बढ़ेगी बल्कि डीपफेक और ए आई-जनित भ्रामक सामग्रियों पर रोक लगाने में भी मदद मिलेगी। फेक न्यूज़ पर अंकुश खासा ज़रूरी है। लोकतंत्र के लिये खतरा – चुनावी माहौल में झूठी सूचनाएँ जनमत को प्रभावित कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर कर सकती हैं। लोक व्यवस्था का विघटन – व्हाट्सएप अफवाहों से 2018 में कई राज्यों में मॉब लिंचिंग की घटनाएँ इसका उदाहरण हैं। नागरिकों के सूचना के अधिकार पर असर – अनुच्छेद 19 के तहत नागरिकों को सही जानकारी पाने का अधिकार है, जिसे फेक न्यूज़ कमजोर करती है। विश्वास का ह्रास – कोविड-19 के दौरान वैक्सीन को लेकर फैली अफवाहों ने सरकारी संस्थानों पर भरोसा घटा दिया। राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा – विभाजनकारी और भ्रामक सूचनाएँ समाज में दरार डालकर देश की सुरक्षा व्यवस्था को प्रभावित कर सकती हैं। यह भी सच है कि फेक न्यूज़ से निपटना आसान नहीं है। इसकी परिभाषा ही विवादास्पद है और अक्सर राय या व्यंग्य से अलग करना मुश्किल होता है। दूसरा, कठोर नियमन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर सकता है। सोशल मीडिया की तेज़ी भी चुनौती है। झूठी खबरें पल भर में वायरल हो जाती हैं, जबकि तथ्य-जाँच में समय लगता है। कई बड़े प्लेटफॉर्म भारत से बाहर स्थित हैं, जिससे कानूनी और जवाबदेही संबंधी अड़चनें आती हैं। तकनीकी स्तर पर ए आई और डीपफेक जैसी प्रौद्योगिकियाँ भ्रामक सामग्री को वास्तविकता जैसा बना देती हैं। साथ ही कम डिजिटल साक्षरता वाले लोग बिना जांचे-परखे ऐसी सूचनाओं पर भरोसा कर लेते हैं। एक अन्य जोखिम यह है कि कड़ा नियमन कहीं सेंसरशिप का रूप न ले ले और सरकार पर अतिक्रमण का आरोप न लगे। राजनीतिक ध्रुवीकरण भी झूठी खबरों के प्रसार को और बढ़ावा देता है। भारत ने फेक न्यूज़ से निपटने के लिये कई कदम उठाए हैं। भारतीय प्रेस परिषद ने पत्रकारिता के लिये आचार संहिता तय की है। आई टी अधिनियम, 2000 और 2021 के डिजिटल मीडिया नियमों के तहत मध्यस्थों पर ज़िम्मेदारी तय की गई है। प्रेस सूचना ब्यूरो तथ्य-जाँच इकाई सरकारी सूचनाओं से जुड़ी अफवाहों का खंडन करती है। भारत निर्वाचन आयोग ने चुनाव 2024 के दौरान ‘मिथक बनाम वास्तविकता रजिस्टर’ जारी किया। I4सी और राष्ट्रीय साइबर अपराध पोर्टल नागरिकों को शिकायत दर्ज कराने की सुविधा देते हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 2024 में ऑनलाइन सट्टेबाज़ी व सरोगेट विज्ञापनों पर रोक लगाने का निर्देश जारी किया। दूसरी ओर इसके लिए हम कई उपाय कर सकते हैं जैसे कानूनी ढांचे को मज़बूत करना – फेक न्यूज़ को राय या आलोचना से अलग स्पष्ट रूप से परिभाषित करना ज़रूरी है। अंतरराष्ट्रीय मॉडल से सीख – सिंगापुर का आपराधिक कानून और यूरोपीय संघ की डिजिटल सर्विस एक्ट प्लेटफॉर्म जवाबदेही और पारदर्शिता का अच्छा उदाहरण हैं। तथ्य-जाँच का संस्थानीकरण – स्वतंत्र तथ्य-जाँच संगठनों को प्रमाणित करना और समय-समय पर ऑडिट करना ज़रूरी है। ए आई का जिम्मेदार उपयोग – जैसे यूरोपीय संघ ए आई-जनित सामग्री की लेबलिंग को अनिवार्य कर रहा है, वैसा ही भारत में भी किया जा सकता है। डिजिटल साक्षरता और जनजागरण – स्कूल स्तर से मीडिया साक्षरता को पाठ्यक्रम में शामिल करना और नागरिकों को जिम्मेदारी से सूचना साझा करने के लिये प्रेरित करना। अंतर-मंत्रालयी समन्वय – सूचना प्रौद्योगिकी, गृह और उपभोक्ता मंत्रालयों के बीच तालमेल से एकीकृत नीति बनाना। अंत में कह सकते हैं कि फेक न्यूज़ केवल एक मीडिया समस्या नहीं बल्कि लोकतांत्रिक ढांचे, सामाजिक एकता और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये गंभीर चुनौती है। संसद की समिति ने जो सुझाव दिए हैं, वे इस खतरे को नियंत्रित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। परंतु असली परीक्षा इन उपायों को लागू करने और नियमन व स्वतंत्रता के बीच संतुलन साधने की होगी। यदि भारत कानूनी, तकनीकी और सामाजिक स्तर पर मिलकर प्रयास करता है, तो न केवल फेक न्यूज़ पर अंकुश लगाया जा सकता है बल्कि लोकतंत्र में सूचना की विश्वसनीयता और पारदर्शिता को भी मज़बूत किया जा सकेगा। यही एक जागरूक और सुरक्षित डिजिटल भारत की दिशा में आवश्यक कदम होगा।