भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
लद्दाख की शांति और सादगी को हाल ही में हिंसा और अराजकता ने झकझोर दिया। लेह की सड़कों पर जो आंदोलन देखने को मिला, उसने न केवल स्थानीय प्रशासन को सकते में डाल दिया बल्कि पूरे देश का ध्यान भी इस ओर खींच लिया। सवाल यह है कि यह विरोध अचानक भड़की नाराज़गी का नतीजा था या फिर इसके पीछे पहले से कोई संगठित रणनीति छिपी हुई थी? याद रहे लद्दाख 2019 में जम्मू-कश्मीर से अलग होकर केंद्रशासित प्रदेश बना। तब से स्थानीय लोगों की सबसे बड़ी मांग रही है – छठी अनुसूची के तहत संवैधानिक सुरक्षा, ताकि उनकी संस्कृति, संसाधनों और रोज़गार पर बाहरी दखल कम हो सके। पिछले कुछ वर्षों में इस मुद्दे पर कई बार शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुए, लेकिन हालिया घटनाओं ने संघर्ष का स्वरूप बदल दिया। स्थानीय संगठनों का आरोप है कि सरकार उनकी मांगों को गंभीरता से नहीं ले रही, जबकि प्रशासन का कहना है कि वार्ता के रास्ते खुले हैं। इसी बीच अचानक प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों के बीच झड़पें हुईं, जो हिंसक रूप ले गईं। आइये समझते हैं इस आंदोलन के कारणों के बारे में। लेह में भड़के इस आंदोलन की जड़ें गहरी हैं। संवैधानिक गारंटी की मांग – स्थानीय समुदाय को आशंका है कि बाहर से आने वाले लोग उनकी भूमि और रोज़गार पर कब्जा कर लेंगे। पर्यावरण और विकास – लद्दाख एक संवेदनशील पारिस्थितिक क्षेत्र है। लोग मानते हैं कि बड़े उद्योग और अंधाधुंध खनन उनके पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएंगे। राजनीतिक प्रतिनिधित्व – विधानसभा न होने और दिल्ली पर अत्यधिक निर्भरता ने लोगों को उपेक्षित महसूस कराया है। युवाओं की बेरोज़गारी – रोजगार के अवसर सीमित होने और निजी निवेश न आने से युवा हताश हैं। इन मुद्दों का लंबे समय से समाधान न होना ही आंदोलन की ज़मीन तैयार करता रहा है। यह सच है कि आंदोलन की शुरुआत शांतिपूर्ण रैली से हुई। लेकिन जैसे ही भीड़ बढ़ी, स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई। प्रदर्शनकारियों ने प्रशासनिक भवनों पर नारेबाज़ी की। कुछ उपद्रवी तत्वों ने पथराव और तोड़फोड़ की। सुरक्षा बलों ने स्थिति काबू में करने के लिए आँसू गैस और लाठीचार्ज का सहारा लिया। इस टकराव में कई लोग घायल हुए। स्थानीय नागरिक संगठनों ने आरोप लगाया कि बल प्रयोग अधिक हुआ, वहीं प्रशासन का कहना है कि हिंसा पहले प्रदर्शनकारियों की ओर से शुरू हुई थी। सबसे बड़ा सवाल यही है कि लेह जैसा शांत इलाका अचानक कैसे भड़क उठा। विशेषज्ञ और सुरक्षा एजेंसियां मान रही हैं कि आंदोलन पूरी तरह स्वतःस्फूर्त नहीं था। रैली से पहले सोशल मीडिया पर आंदोलन की अपील लगातार हो रही थी। बड़ी संख्या में भीड़ का अचानक इकट्ठा होना किसी संगठित तैयारी की ओर इशारा करता है। कुछ बाहरी समूहों की सक्रियता की भी चर्चा है, जिनका मकसद असंतोष को बढ़ाना हो सकता है। हालांकि, स्थानीय नेताओं का कहना है कि यह आंदोलन वर्षों से दबे असंतोष की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। उनके मुताबिक, “अगर सरकार समय रहते हमारी बातें सुन लेती, तो आज सड़कों पर यह स्थिति न होती।” लद्दाख प्रशासन ने हालात संभालने के लिए अतिरिक्त सुरक्षा बल तैनात किए हैं। जिला प्रशासन ने इंटरनेट सेवाएं अस्थायी रूप से बंद कर दीं ताकि अफवाहें न फैलें। स्थानीय नेताओं से बातचीत के प्रयास जारी हैं। केंद्र सरकार ने भी स्थिति पर करीबी नज़र रखी हुई है और वार्ता की संभावना से इनकार नहीं किया है। केंद्रीय गृहमंत्रालय ने साफ कहा है कि लद्दाख की पहचान और संस्कृति की रक्षा करना सरकार की प्राथमिकता है, लेकिन हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकती। लद्दाख केवल एक केंद्रशासित प्रदेश ही नहीं बल्कि सामरिक दृष्टि से भारत की सुरक्षा का अहम हिस्सा है। इसकी सीमाएं चीन और पाकिस्तान से लगती हैं। गलवान और कारगिल जैसे इलाकों में पहले भी तनाव रह चुका है। यहां अस्थिरता भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर सीधा असर डाल सकती है। इसी वजह से लेह में हुई हिंसा को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर चिंता बढ़ गई है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर हालात को जल्द नहीं संभाला गया तो यह क्षेत्रीय असंतोष का बड़ा केंद्र बन सकता है। लद्दाख के मुद्दे पर विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की। उनका कहना है कि सरकार ने स्थानीय जनता से किए वादों को पूरा नहीं किया। वहीं, भाजपा नेताओं का दावा है कि सरकार लगातार विकास कार्यों पर जोर दे रही है और आंदोलन को राजनीतिक रंग देने की कोशिश हो रही है। विशेषज्ञ मानते हैं कि यह मामला केवल राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ा है। इसलिए इसे संवेदनशील दृष्टिकोण से देखना होगा। लेह का यह आंदोलन सरकार और जनता, दोनों के लिए एक चेतावनी है कि संवाद और समाधान में देरी असंतोष को हिंसा में बदल सकती है। वार्ता – स्थानीय संगठनों और सरकार के बीच सीधी बातचीत ज़रूरी है। सुरक्षा – बाहरी तत्वों और अफवाह फैलाने वालों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। विकास संतुलन – लद्दाख में विकास परियोजनाएं स्थानीय संस्कृति और पर्यावरण के संरक्षण के साथ चलें। राजनीतिक प्रतिनिधित्व – जनता को यह भरोसा दिलाना होगा कि उनकी आवाज़ दिल्ली तक पहुँच रही है। अंत में कह सकते हैं कि लेह में हुआ हिंसक आंदोलन केवल एक स्थानीय घटना नहीं, बल्कि यह उस असंतोष का प्रतीक है जो लंबे समय से दबा हुआ था। सवाल यह भी है कि क्या इसे किसी ने योजनाबद्ध तरीके से हवा दी या यह जनता की स्वाभाविक नाराज़गी थी। जो भी हो, इस घटना ने साफ कर दिया है कि लद्दाख की शांति बनाए रखने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने होंगे। अगर संवैधानिक गारंटी, पर्यावरण संरक्षण और रोजगार जैसी बुनियादी मांगों को गंभीरता से नहीं लिया गया, तो यह असंतोष भविष्य में और गहरा हो सकता है। समय रहते संवाद और विश्वास की राजनीति ही समाधान का रास्ता दिखा सकती है।