भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चुनावी माहौल में एक बार फिर से भारतीय उद्योगों को झटका देने वाला फैसला किया है। इस बार निशाने पर है भारतीय दवा उद्योग, जो लंबे समय से अमेरिकी बाज़ार पर अपनी पकड़ बनाए हुए है। ट्रंप ने घोषणा की है कि भारतीय दवाओं पर अब 100% टैरिफ लगाया जाएगा। यह फैसला न केवल भारतीय कंपनियों के लिए आर्थिक संकट का संकेत है, बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य बाज़ार पर भी दूरगामी असर डाल सकता है। सवाल यह है कि मोदी सरकार और भारतीय उद्योग जगत इस असहनीय दबाव का सामना कैसे करेंगे? याद रहे डोनाल्ड ट्रंप अपने पहले कार्यकाल (2017-2021) में भी "अमेरिका फर्स्ट" नीति के तहत कई बार भारतीय आईटी और फार्मा कंपनियों को निशाना बना चुके थे। अब एक बार फिर से उन्होंने चुनावी राजनीति के लिए संरक्षणवादी रुख अपनाया है। अमेरिकी मतदाताओं को यह संदेश दिया जा रहा है कि ट्रंप अमेरिकी कंपनियों और रोज़गार की रक्षा करेंगे। मगर असल में यह फैसला अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकता है क्योंकि भारत से आयातित दवाएं अपेक्षाकृत सस्ती होती हैं। यह सच है कि भारत दुनिया का "फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड" कहलाता है। यहाँ बनी जेनेरिक दवाएं न केवल अमेरिका बल्कि अफ्रीका, यूरोप और एशिया के कई देशों में लाखों-करोड़ों लोगों की ज़िंदगी बचाती हैं। अमेरिकी बाज़ार भारत के लिए सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य है। अनुमान है कि भारत हर साल लगभग 8-10 अरब डॉलर की दवाएं अमेरिका को निर्यात करता है। इनमें कैंसर, डायबिटीज़, एचआईवी और ब्लड प्रेशर जैसी गंभीर बीमारियों की सस्ती दवाएं शामिल हैं। ऐसे में ट्रंप का यह कदम भारतीय निर्यात पर सीधा प्रहार है। दूसरी ओर भारत पर इस टैरिफ का असर गहरा हो सकता है। 2025 की पहली छमाही में ही भारत ने अमेरिका को करीब 3.7 अरब डॉलर (32,505 करोड़ रुपये) की दवाएं निर्यात कीं, जबकि 2024 में यह आंकड़ा 3.6 अरब डॉलर (31,626 करोड़ रुपये) रहा। यानी अमेरिकी बाज़ार भारत के लिए लगातार बड़ा और स्थिर राजस्व स्रोत रहा है। प्रमुख कंपनियां—डॉ. रेड्डीज, सन फार्मा, ल्यूपिन और ऑरोबिंदो फार्मा—अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा अमेरिका से हासिल करती हैं। 100% टैरिफ लागू होने पर इन कंपनियों की प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त खत्म होगी और राजस्व में गिरावट से पूरे भारतीय फार्मा उद्योग को झटका लग सकता है। ट्रंप का फैसला केवल भारतीय कंपनियों को ही नहीं, बल्कि अमेरिकी उपभोक्ताओं को भी नुकसान पहुंचाएगा। भारत से आयातित दवाएं अमेरिकी उपभोक्ताओं को किफ़ायती दामों पर उपलब्ध होती हैं। 100% टैरिफ लगने के बाद उनकी कीमतें दोगुनी हो जाएंगी। इसका सीधा असर अमेरिकी स्वास्थ्य व्यवस्था पर पड़ेगा, खासकर उन मरीजों पर जो बीमा कवर के बिना महंगी दवाएं खरीदने को मजबूर होंगे। यह फैसला अमेरिकी समाज में भी बहस का विषय बन सकता है। इससे मोदी सरकार के लिए चुनौती होना लाजमी है। भारत सरकार के सामने अब बड़ी चुनौती है। एक तरफ उसे अमेरिकी प्रशासन के साथ कूटनीतिक स्तर पर बातचीत करनी होगी ताकि इस फैसले को रोका जा सके। दूसरी तरफ उसे भारतीय कंपनियों के लिए वैकल्पिक बाज़ार तलाशने होंगे। मोदी सरकार "मेक इन इंडिया" और "आत्मनिर्भर भारत" की बात करती रही है, मगर दवा उद्योग का वैश्विक व्यापार इतना जटिल है कि केवल घरेलू बाज़ार पर निर्भर रहना संभव नहीं। सरकार के पास कुछ विकल्प हैं— अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौतों में दबाव बनाना। यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे नए बाज़ारों में निर्यात बढ़ाना। घरेलू स्तर पर अनुसंधान और विकास में निवेश को प्रोत्साहित करना ताकि भारतीय कंपनियां हाई-एंड दवाओं का उत्पादन कर सकें। विश्व व्यापार संगठन में इस मुद्दे को उठाना। यह फैसला भारत-अमेरिका संबंधों की गर्मजोशी पर भी सवाल खड़ा करता है। पिछले कुछ वर्षों में दोनों देशों के बीच रणनीतिक और रक्षा सहयोग गहरा हुआ है। मगर जब भी आर्थिक हितों की बात आती है, अमेरिकी राजनीति अक्सर संरक्षणवादी हो जाती है। ट्रंप के इस रुख से यह साफ हो गया है कि भारत को केवल दोस्ती और साझेदारी की बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिए, बल्कि अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए ठोस रणनीति बनानी होगी। दूसरी ओर भारतीय दवा उद्योग के भविष्य की बात करें तो भारत का दवा उद्योग केवल निर्यात पर निर्भर नहीं है, बल्कि देश की अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए भी अहम है। अगर कंपनियों के मुनाफ़े पर असर पड़ेगा, तो इसका असर अनुसंधान और उत्पादन क्षमता पर भी पड़ेगा। इससे भारत की दवा कीमतें भी प्रभावित हो सकती हैं। हालांकि, यह संकट भारतीय कंपनियों को नए अवसर भी दे सकता है। चीन और रूस जैसे बाज़ारों में भारत अपनी पकड़ मजबूत कर सकता है। साथ ही, बायोटेक्नोलॉजी और वैक्सीन के क्षेत्र में नई संभावनाओं पर काम करने का मौका मिलेगा। अंत में कह सकते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप का भारतीय दवाओं पर 100% टैरिफ लगाने का फैसला न केवल भारतीय कंपनियों बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए भी खतरे की घंटी है। यह कदम अमेरिकी उपभोक्ताओं को भी नुकसान पहुंचाएगा। भारत सरकार को अब संतुलित और आक्रामक रणनीति अपनानी होगी। मोदी सरकार के लिए यह समय केवल बयानबाज़ी का नहीं, बल्कि ठोस कूटनीतिक और आर्थिक कदम उठाने का है। दुनिया की "फार्मेसी" कहलाने वाले भारत को यह साबित करना होगा कि वह केवल अमेरिकी बाज़ार पर निर्भर नहीं, बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य की अनिवार्य धुरी है। यह संकट भारत के लिए चुनौती भी है और अवसर भी।