भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
भारत का लोकतंत्र तीन स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—पर टिका है। इन तीनों में न्यायपालिका वह स्तंभ है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा और संविधान की मर्यादा को बनाए रखने का कार्य करती है। लेकिन जब अदालतों, न्यायाधीशों या न्यायिक संस्थाओं पर हमला होता है, तो यह केवल किसी व्यक्ति या संस्था पर नहीं बल्कि भारतीय संविधान की आत्मा पर सीधा आघात होता है। हाल ही में न्यायपालिका पर जूते फेंकने और सार्वजनिक रूप से उसकी अवमानना करने जैसी घटनाओं ने देश में गहरी चिंता उत्पन्न की है। यह सवाल उठता है कि क्या लोकतंत्र में ‘आस्था’ या ‘धार्मिक भावनाओं’ के नाम पर न्यायिक गरिमा को रौंदा जा सकता है? इसमें कोई दो राय नहीं है कि न्यायपालिका न केवल कानून का प्रहरी है बल्कि संविधान की आत्मा की संरक्षक भी है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय बार-बार यह दोहराता आया है कि कोई भी व्यक्ति, संस्था या विचारधारा संविधान से ऊपर नहीं हो सकती। फिर भी, जब अदालतों के निर्णयों से असहमति होती है, तो असहमति का लोकतांत्रिक तरीका संवाद, समीक्षा या अपील होना चाहिए—न कि हिंसा, अपमान या सार्वजनिक हमले। अफसोस की बात है कि हाल के वर्षों में सोशल मीडिया और राजनीतिक मंचों पर न्यायपालिका को निशाना बनाना एक नया “ट्रेंड” बन गया है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए उतनी ही खतरनाक है जितनी किसी संस्था का तानाशाही की ओर झुकाव। भारत की संवैधानिक भावना यह कहती है कि हर नागरिक को अपनी आस्था और पूजा की स्वतंत्रता है, परंतु यह स्वतंत्रता कानूनी सीमाओं से परे नहीं जा सकती। जब किसी न्यायिक आदेश के विरोध में भीड़ जुटाई जाती है, जूते-चप्पल फेंके जाते हैं या नारेबाजी की जाती है, तब यह केवल ‘असहमति’ नहीं बल्कि संवैधानिक अवज्ञा का रूप ले लेती है। न्यायपालिका के विरुद्ध ऐसी घटनाएँ इस भ्रम को जन्म देती हैं कि “आस्था” संविधान से ऊपर है, जबकि सच्चाई इसके विपरीत है—संविधान ही वह दस्तावेज़ है जिसने हर धर्म, हर आस्था और हर विचार को समान सुरक्षा दी है। इसलिए जब कोई समूह न्यायिक निर्णयों को धार्मिक भावनाओं के आधार पर खारिज करने की कोशिश करता है, तो वह न केवल कानून का उल्लंघन करता है बल्कि भारत की एकता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय व्यवस्था की नींव को कमजोर करता है। अब समझते हैं कि आखिर न्यायपालिका पर हमला क्यों खतरनाक है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता किसी भी लोकतंत्र का सबसे बड़ा आधार स्तंभ है। यदि न्यायाधीश भय या दबाव में निर्णय देने लगें, तो नागरिकों का कानून पर से विश्वास उठ जाएगा। न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के प्रयास, चाहे वे राजनीतिक हों या धार्मिक, अंततः आम जनता को ही नुकसान पहुंचाते हैं। ‘जूते से प्रहार’ जैसी घटनाएं प्रतीकात्मक रूप से यह संदेश देती हैं कि कुछ लोग न्यायालय के आदेशों का सम्मान नहीं करते। यह न केवल न्यायालय की अवमानना है बल्कि कानून के शासन की अवधारणा पर चोट है। यदि यह प्रवृत्ति अनचेक्ड रही, तो यह भीड़तंत्र को बढ़ावा देगी—जहां कानून की जगह भावनाएं और धर्म आधारित नारों का शासन होगा। पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि कई बार राजनीतिक दल या संगठनों ने अदालतों के निर्णयों को “पक्षपातपूर्ण” या “जनविरोधी” कहकर जनता के बीच अविश्वास फैलाने की कोशिश की है। यह राजनीति का सबसे खतरनाक रूप है क्योंकि इससे न्यायपालिका की संस्थागत साख कमजोर होती है। लोकतंत्र में अदालतें किसी पार्टी या विचारधारा के खिलाफ नहीं, बल्कि अन्याय और असंवैधानिकता के खिलाफ खड़ी होती हैं। इसलिए न्यायपालिका पर व्यक्तिगत या राजनीतिक हमले करना लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन है। अदालत के किसी फैसले से असहमत होना नागरिक का अधिकार है। लेकिन इस असहमति को संविधानसम्मत दायरे में व्यक्त किया जाना चाहिए। न्यायिक फैसलों के खिलाफ अपील की व्यवस्था इसलिए बनाई गई है ताकि असहमति का समाधान कानूनी मार्ग से हो सके। परंतु जब विरोध हिंसक रूप ले लेता है—जूते फेंकने, गाली-गलौज करने या अदालत परिसर में नारेबाजी के रूप में—तो यह लोकतंत्र के उस अनुशासन को तोड़ देता है जो उसे बाकी व्यवस्थाओं से अलग बनाता है। संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 अदालतों को ‘कंटेप्ट ऑफ कोर्ट यानी अवमानना के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार देते हैं। इसका उद्देश्य न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को बचाना है ताकि कोई भी संस्था या व्यक्ति उसके आदेशों को हल्के में न ले। न्यायपालिका की गरिमा सिर्फ न्यायाधीशों की नहीं, बल्कि हर उस नागरिक की है जो अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाता है। इसलिए जब अदालतों पर जूते फेंके जाते हैं, तो असल में देश के हर आम नागरिक के अधिकारों पर प्रहार होता है। आज जब सोशल मीडिया न्याय और विचारों का बड़ा मंच बन चुका है, तब उसकी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। मीडिया और सोशल प्लेटफॉर्म्स को चाहिए कि वे ऐसी घटनाओं को न्यायपालिका-विरोधी उन्माद में न बदलने दें। विवादों को धार्मिक या भावनात्मक रंग देने की बजाय, उन्हें संवैधानिक चर्चा की दिशा में ले जाना ही राष्ट्रहित में है। अंत में कह सकते हैं कि भारत में किसी की भी आस्था, विचार या परंपरा संविधान से ऊपर नहीं हो सकती। आस्था के नाम पर हिंसा, अवमानना या न्यायिक निर्णयों का अपमान न केवल असंवैधानिक है, बल्कि लोकतंत्र के भविष्य के लिए गंभीर खतरा है। समाज और सरकार दोनों को यह समझना होगा कि न्यायपालिका पर हमला, दरअसल लोकतंत्र पर हमला है। यदि अदालतों का सम्मान नहीं रहेगा, तो नागरिक अधिकारों की रक्षा भी असंभव हो जाएगी। संविधान ने हमें स्वतंत्रता दी है—पर यह स्वतंत्रता मर्यादा और अनुशासन से बंधी हुई है। इसलिए हमें तय करना होगा कि हम भीड़ की मानसिकता में जीना चाहते हैं या उस लोकतंत्र में जो न्याय, समानता और कानून के शासन पर टिका है।